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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ११७ देह का कर्तृत्व औदारिक वर्गणा में है। इसे निम्न दृष्टांत द्वारा भी स्पष्ट किया जा सकता है
गेहूँ, मक्का आदि का आटा रोटी के रूप में परिणमित होता है, अर्थात आटे की रोटी का निर्माण होता है, इसलिए रसाइए ने आटे से रोटी बनाई हैऐसा कहा जाता है रसोइए ने वास्तव में रोटी बनाई नहीं है, क्योंकि वह स्वयं रोटी के परिणाम से परिणत नहीं होता है। यदि ऐसा होता, तो वह रसोइया गेहूँ के आटे की तरह रेत से भी रोटी बना सकता है; परंतु ऐसा नहीं होता है, इसलिए रसोइया रोटी को बनाने वाला नहीं है, ऐसा सिद्ध होता है। फिर भी रसोइए ने रोटी बनाई ऐसा व्यवहार रोटी के कर्ता (गेहूँ का आटा) और रसोइए के बीच भेद का ज्ञान नहीं होने से, लोगों में होता है। यह औपचारिक व्यवहार है। यहाँ गेहूँ का आटा-कार्मणवर्गणा, रोटी- ज्ञानावरणादि कर्म, रसोइया- आत्मा है। उसी प्रकार मिट्टी-कार्मणवर्गणा, घट-ज्ञानावरणादिकर्म, कुम्हार-आत्मा।
____ भगवद्गीता में भी कहा गया है- “कर्मप्रकृति के गुणों द्वारा सब कार्य किए जाते है, तो भी अहंकार से मूढ व्यक्ति 'मैं कर्ता हैं। ऐसा मानता है।"१५८ ऐसे अंहकार से उसे कर्मबंध होते हैं, परंतु एक ही क्षेत्र में समान आकाशप्रदेश की श्रेणी में जीव और कर्म के रहने मात्र से रागादिरहित ज्ञानी को तदुनिमित्तक कर्मबंध नहीं होता है, क्योंकि तनिमित्तक कोई भी रागादिभाव ज्ञानी को नहीं होता है। जैसे जिस आकाशप्रदेश में रहकर कर्म अपना फल बताते हैं, उसी आकाशप्रदेश में आत्मा की तरह धर्मास्तिकाय भी रहा हुआ है, तो भी धर्मास्तिकाय को कर्मबंध नहीं होता है, क्योंकि धर्मास्तिकाय में रागादिभाव स्वरूप चीकाश नहीं है, उसी प्रकार आत्मज्ञानी को भी कर्मोदय निमित्तक रागादिभाव के अभाव में कर्म नहीं बंधते हैं। यशोविजयजी ने अध्यात्मसार ग्रंथ में कहा है- “जिस क्षेत्र में कर्म रहे हुए हैं, उसी क्षेत्र में ज्ञानी की आत्मा के रहने पर भी आत्मा कर्म के फल की मलिनता का अनुभव नहीं करती है, क्योंकि तथाभव्य स्वभाव के कारण आत्मा धर्मास्तिकाय की तरह शुद्ध है, अर्थात् रागादि शून्य ही है।" १५६ अध्यात्मबिन्दु नामक ग्रंथ में कहा गया है- "जैसे वैद्य जहर को खाने पर भी उसकी शोधन
१५८. प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
. अहंकारविमूढ़ात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते। (३/२७) -भगवद्गीता १५६. एकक्षेत्रस्थितोऽप्येति नात्मा कर्मगुणान्वयम्
. तथाभव्यस्वभावत्वाच्छुद्धो धर्मास्तिकायवत् -अध्यात्मसार -उ. यशोविजयजी
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