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________________ ११६/ साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री द्वारा भोगवाते स्थूल पदार्थों का भी भोक्ता है।" जैसे मैं खाता हूँ, मैं नृत्य करता हूँ, मैं नाटक देखता हूँ आदि कथन इस नय के आधार पर हैं। उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मसार में कहा है- “जीव निश्चयनय सेकर्मों का भोक्ता है तथा व्यवहारनय से स्त्री आदि का भी भोक्ता है। "१५५ कर्तृत्व और भोक्तृत्त्व दोनों ही शरीरयुक्त बद्धात्मा में ही पाए जाते हैं, मुक्तात्मा में नहीं। जैनदर्शन एकान्त आत्मकर्तृत्त्ववाद को नहीं मानता है। यदि आत्मा को एकान्त रूप से कर्मों का कर्त्ता माना जाए, तो कर्तृत्व उसका स्वलक्षण होना चाहिए और ऐसी स्थिति में निर्वाण अवस्था में भी उसमें कर्त्तृत्व रहेगा। यदि कर्त्तापण आत्मा का स्वलक्षण है, तो वह कभी छूट नहीं सकता और जो छूट सकता है, वह स्वलक्षण नहीं हो सकता । आत्मा को स्वलक्षण की दृष्टि से कर्त्ता मानने पर मुक्ति की संभावना ही समाप्त हो जाएगी। १५६ अतः शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से जैनदर्शन आत्मा को कर्म का कर्त्ता नहीं मानता है। निश्चयनय से आत्मा कर्म का अकर्त्ता १५७ उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मोपनिषद, ज्ञानसार तथा आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में कहा गया है- “ जैसे योद्धाओं द्वारा किए गए युद्ध का आरोपण स्वामी या राजा पर होता है, जैसे राजा ने युद्ध किया - ऐसा लोकव्यवहार में कहते हैं; उसी प्रकार कर्म के समूह से उत्पन्न भावों का आरोपण अविवेक के कारण आत्मा में होता है । " ज्ञानावरणादि कर्म के परिणाम से स्वयं परिणमित होते हुए कार्मणवर्गणां नाम के पुद्गल - पुंजों द्वारा ज्ञानावरणादि कर्म उत्पन्न होता है। विशुद्ध आत्मा का स्वयं ज्ञानावरणादि में परिणमन नहीं होता है, फिर भी आत्मा ने ज्ञानावरणादि कर्म किया- ऐसा उपचार से कहते हैं। कर्म के कर्त्ता और आत्मा के बीच में भेद रहा हुआ है। ज्ञानावरणादि कर्म का कर्तृत्व कार्मण वर्गणा में है। १५५. कर्मणोऽपि च भोगस्य स्त्रगादेर्व्यहारतः नैगमादि व्यवस्थापि भावनीयाऽनया दिशाः ।। ८० । अध्यात्मसार - यशोविजयजी डॉ. सागरमल जैन १५६. जैन बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन - भाग-२, पृ. २२१ १५७. यथा भृत्यैः (योधैः) कृतं युद्धं स्वामिन्येवोपचर्यते शुद्धात्मन्यविवेकेन कर्मस्कन्धोर्जितं तथा ॥ ३० ॥ - अध्यात्मोपनिषद् (ब) ज्ञान सार - उ. यशोविजयजी जोदेहि कदे जुद्धे राएण कदं ति जंपदे लोगो । ववहारेन तह कदं णाणावरणादि जीवेण । ।१०६ ।। समयसार - आचार्य कुन्दकुन्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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