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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ११५ अभिव्यक्त होती है।" १५३ गुणस्थानक की दृष्टि से तेरहवाँ सयोगीकेवली और चौदहवाँ अयोगीकेवली के गुणस्थानक पर रहा हुआ आत्मा परमात्मा कहलाता है। इन त्रिविध आत्माओं का विवेचन अगले अध्याय में किया जा रहा है। आत्मा के कर्तृत्व और भोक्तृत्त्व संसारी प्राणियों की विविधता का कारण कर्म ही है। कोई विद्वान् है, कोई मूर्ख हैं, कोई धनवान है, कोई धनहीन; कोई आसक्त, कोई विरक्त, किसी का सत्कार, तो किसी का तिरस्कार, कोई सुन्दर है, कोई कुरूप; कोई लेखक है तो कोई कवि या वक्ता। कोई विशेष योग्यता न रखते हुए भी स्वामी बना हुआ है, तो कोई योग्यता होते हुए भी सेवक है। ऐसी अनेक प्रकार की विचित्रताएँ हमें संसार में देखने को मिलती हैं। इनका आन्तरिक हेतु कर्म है। आत्मा के बिना कर्म सर्वथा असंभव है। व्यवहारनय से उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है- “यह जीवात्मा ही सुखों तथा दुखों का कर्ता तथा भोक्ता है और यह जीवात्मा ही (यदि सुमार्ग पर चले तो) अपना सबसे बड़ा मित्र है और (यदि कुमार्ग पर चले तो) स्वयं अपना सबसे बड़ा शत्रु है। यह आत्मा ही (आत्मा के लिए) वैतरणी नदी तथा कूटशाल्मली वृक्ष के समान दुःखदायी है और यही कामधेनु तथा नन्दनवन के समान सखदायी भी है।"१५४ यह जीवात्मा अपने ही पापकों द्वारा नरक और तिथंच गति के अनन्त दुःखों को भोगता है और वही अपने ही सत्कर्मों द्वारा स्वर्ग आदि के विविध दिव्य सुख भी भोगता है। व्यवहारनय वर्तमान वास्तविक परिस्थितियों और संयोगों को स्वीकार करता है। "निरूपचरित असद्भूत व्यवहारनय के अनुसार आत्मा कर्मों का कर्ता और भोक्ता है और उपचरित असद्भूत व्यवहारनय के अनुसार आत्मा देह के १५३. ज्ञानं केवलसंज्ञ योगनिरोधः समग्रकर्महति: सिद्धिनिवासश्च यदा परमात्मा स्यात्तदा व्यक्तः ।।२४।। अनुभवाधिकार-अध्यात्मसार उ. यशोविजयजी १५४. अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य अप्पा मित्तभमित्तं च दुप्पट्ठिय सुपहिओ।।३७ ।। अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा धेगू, अप्पा मे नन्दणं वणं ।।३६ ।। -उत्तराध्ययन - बीसवाँ अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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