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________________ ११४ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री दृष्टान्त के आधार पर पहले व्यक्ति के परिणाम कृष्णलेश्या के हैं, क्रमशः अन्तिम मित्र के परिणाम शुक्ललेश्या के हैं। भावों के आधार से एक जीव लेश्या के अनेक स्थानों को स्पर्श कर सकता है। मिथ्यादृष्टि जीव छहों लेश्याओं में रह सकता है । सयोगीकेवली के मात्र शुक्ललेश्या होती है। अयोगी अवस्था में जीव लेश्यारहित होता है । यही अध्यात्म की पूर्णता है। आत्मा का त्रिविध वर्गीकरण जैन-धर्मदर्शन में आध्यात्मिक पूर्णता, अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति को साधना का अन्तिम लक्ष्य माना जाता है। इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधक को साधना की विभिन्न श्रेणियों से गुजरना पड़ता है। डॉ. सागरमलजी जैन का कहना है“विकास तो एक मध्यावस्था है, उसके एक ओर अविकास की अवस्था तथा ,१५१ दूसरी ओर पूर्णता की अवस्था है। ' इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए पूर्ववर्ती जैनाचार्यों ने तथा उपाध्याय यशोविजयजी ने अपने ग्रन्थ में आत्मा की निम्न तीन अवस्थाओं का विवेचन किया है १. २. ३. बहिरात्मा - आत्मा के अविकास की अवस्था अन्तरात्मा - आत्मा की विकासमान अवस्था परमात्मा आत्मा की विकसित अवस्था उपाध्याय यशोविजयजी ने बहिरात्मा के चार प्रमुख लक्षण बताए हैं। १५२ (१) विषय कषाय का आवेश (२) तत्त्वों पर अश्रद्धा (३) गुणों पर द्वेष और ( ४ ) आत्मा की अज्ञानदशा । (पुद्गलानंदी) बहिर्मुखी आत्मा को आचारांग में बाल, मंद और मूढ़ नाम से अभिव्यक्त किया गया है। यह अवस्था चेतना या आत्मा की विषयाभिमुखी प्रवृत्ति की सूचक है। जब तत्त्व पर सम्यक् श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान, महाव्रतों का ग्रहण, आत्मा की अप्रमादी दशा और मोह पर विजय प्राप्त होती है; तब अन्तरात्मा की अवस्था १५१. बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन डॉ. सागरमल जैन - भाग १ Jain Education International १५२. विषयकपायावेशः तत्वाश्रद्धा गुणेषु च द्वेषः आत्माऽज्ञानं च यदा बाह्यात्मा स्यात्तदा व्यक्तः ।। २२ ।। - अनुभव अधिकार - अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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