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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ११३ अनुसार मन्दतरकषाय, प्रशान्तचित्त, जितेन्द्रिय अवस्था पालेश्या का लक्षण है।४६ शुद्धता के अनुरागी पद्मलेश्या परिणामी की चित्तवृत्ति प्रशान्त होती है। शुक्ल-लेश्या : शंख के समान श्वेत और मिश्री से अनंतगुना मधुर पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा के जो परिणाम होते हैं, वह शुक्ललेश्या युक्त होते हैं। धर्मध्यान में स्थित शुक्लध्यान में प्रवेश लेने वाला शुक्ललेश्या युक्त होता है। उ. यशोविजयजी के अनुसार शुक्लध्यान के प्रथम दो पाए में शुक्ललेश्या तथा तीसरे पाए में शुक्ललेश्या परम उत्कृष्ट रूप में होती है। शुक्लध्यान का चौथा प्रकार लेश्यातीत होता है।५° शुक्ललेश्या वाला निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, पूजा-गाली, शत्रु-मित्र, रज कंचन सभी स्थितियों में समत्वभाव में रहता है। लेश्या के स्वरूप को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा रहा है- छः मित्र थे। उनके नाम कृष्ण, नीलकुमार, कापोत, तेजकुंवर, पद्मचंद और शुक्लचंद थे। एक दिन वे घुमते हुए एक उद्यान में पहुँचे। वहाँ फल से युक्त जामुन के वृक्ष को देखकर कृष्ण बोला "देखो-देखो, वृक्ष पर कितने सुन्दर जामुन के फल लगे हैं। इस वृक्ष को जड़ मूल से काटकर गिरा देते हैं, फिर बैठे-बैठे आराम से फल खाएंगे।" नील बोला"पूरा वृक्ष गिराने की क्या आवश्यकता है? इसकी बड़ी-बड़ी शाखाएँ काटकर गिरा देते हैं, तो भी बहुत फल मिल जाएंगे।" कापोत बोला- "यह उचित नहीं है केवल छोटी-छोटी शाखा को तोड़ने से भी फल प्राप्त हो जाएंगे।" तेज कुमार बोला- "अरे मित्रों शाखा को तोड़ने से क्या लाभ? फलों के गुच्छे ही तोड़ लेते हैं।" यह सुनकर पदमचंद बोला- "जितने चाहिए उतने फलों को ही तोड़कर खा लेते हैं।" अन्त में शुक्लचंद बोला- “फलों को तोड़ने की भी आवश्यकता नहीं है। नीचे पर्याप्त मात्रा में फल बिखरे पड़े हुए है, इन्हें ही उठाकर खा लेते हैं।" इस १४६. पयणु कोह माणे य, माया लोभे य पयणुए पसंतचित्ते दंतप्पा जोगवं उवहाणवं ।।२६ ।। तहा पयणुवाई य उवसंते जिइंदिए एय जोग-समाउत्तो पम्हलेंस तु परिणमे ।।३०।। -उत्तराध्ययन - अ. चौंतीसवाँ १५०. द्वयोः शुक्ला तृतीये च लेश्या सा परमा मता। चतुर्थः शुक्ल भेदस्तु लेश्यातीतः प्रकीर्तितः।।१२।। -ध्यानाधिकार -अध्यात्मसार -उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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