SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १११ पद्मलेश्या तथा शुक्ललेश्या होती है।" १४३ उत्तराध्ययन में कृष्ण, नील व कापोत लेश्याओं को दुर्गति का कारण, नरक तिर्यन्च गति का हेतु बताया गया है तथा तेजो, पद्म व शुक्ललेश्या को मनुष्य तथा देवगति बन्ध का कारण बताया है।१४४ यही बात उपाध्याय यशोविजयजी ने अध्यात्मसार के ध्यानाधिकार में कही है। कृष्णलेश्या का स्वरूप : भारतीय संस्कृति में यम (मृत्यु) को काले रंग से चित्रित किया गया है। काजल के समान काले और नीम से अनंत गुण कटु रस वाले पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा में जो परिणाम होते हैं, वह कृष्णलेश्या है। वैज्ञानिकों का कथन है कि व्यक्ति के आसपास यदि काला आभामण्डल है, तो समझें कि वह हिंसा, क्रोध, वासना आदि भयंकर भावों की भूमि पर स्थित है। उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं- "निर्दयता पश्चातापरहितता, दूसरों के दुःख में हर्ष, सतत हिंसादि विचारों में प्रवृत्ति आदि इसके लिंग हैं।"१४५ “कृष्णलेश्यावाला क्रूर अविचारी, निर्लज्ज, नृशंस, विषय-लोलुप, हिंसक स्वभाव की प्रचण्डता वाला होता है।"१४६ १४३. कापोतनीलकृष्णानां लेश्यानामत्र संभवः अनतिक्लिष्टभावनां कर्मणां परिणामतः ।।६।। कापोतनीलकृष्णानां लेश्यानामत्र संभवः अतिसंक्लिष्टरुपाणां कर्मणां परिणामतः ।।१४।। तीव्रादिभेदभाजः स्युर्लेश्यास्तिस्त्र इहोत्तराः लिंगान्यत्रागमश्रद्धा विनयः सद्गुणस्तुतिः ।।७१।। - ध्यान अधिकार-अध्यात्मसार -उ. यशोविजयजी १४४. किण्हा नीला काऊ, तिन्नि वि एयाओ अहम्मलेसाओ एयाहि तिहि वि जीवो, दुग्गइ उववज्जइ बहुसो।।५६ ।। तेउ पम्हा सुक्का तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाओ एयाहि तिहि वि जीवो सुग्गइं उववज्जइ बहुसो ।।५७।। -उत्तराध्ययन सूत्र -३४ १४५. निर्दयत्वाननुशयौ बहुमानः परापदि लिंगान्यत्रेत्यदो धीरैस्त्याज्यं नरकदुःखदम् ।।१६।। -ध्यानाधिकार -अध्यात्मसार -उ. यशोविजयजी १४६. पंचासवप्पवत्तो तीहिं अगुत्तो छसुअविरओ य तिव्वारंभ परिणओ खुद्धो साहसिओ नरो ।।२१।। निधस परिणामो निस्संओ अजिइंदिओ एय जोग-समाउणे, किण्हलेसं तु परिणमे ।।२२।। -उत्तराध्ययन ३४ वा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org...
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy