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________________ ११०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री करके मोक्ष में जाता है, तब वह अशरीरी हो जाता है। अतः भव्यजीवों के तेजस, कार्मण शरीर अनादि-सांत होते हैं, जबकि अभव्य और जातिभव्य जीवों के तेजस और कार्मण शरीर अनादि-अनंत होते हैं। १४० लेश्या के आधार पर आत्मा का परिणाम : आध्यात्मिक जगत् में लेश्या का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जीव के शुभ तथा अशुभ परिणामों को लेश्या कहते हैं। भगवतीसूत्र की वृत्ति में लेश्या को परिभाषित करते हुए आचार्य अभयदेवसूरि लिखते हैं- "आत्मा के साथ कर्मपुद्गलों को श्लिष्ट करने वाली प्रवृत्ति लेश्या है। ये 'योग' (प्रवृत्ति) के परिणाम-विशेष हैं।"१४१ आत्मा के द्वारा पुद्गलों का ग्रहण होता है। वे पुद्गल उसके चिंतन को प्रभावित करते हैं। अच्छे पुद्गल अच्छे विचारों के सहायक बनते हैं और बुरे पुद्गल बुरे विचारों को यह एक सामान्य नियम है। विचारों की शद्धि एवं अशद्धि में अनन्तगुण तरतमभाव रहता है। तत्त्वार्थराजवर्तिक में लेश्या को परिभाषित करते हुए आचार्य अकलंक लिखते हैं- “कषाय के उदय से रंजित योग की प्रवृत्ति लेश्या है।"४२ आत्मा के परिणामों की शुद्धता और अशुद्धता की अपेक्षा से इसे कृष्णादि छ: भागों में विभक्त किया है। प्रथम तीन लेश्या अधर्म या अशुभ लेश्या हैं तथा अन्तिम तीन धर्म या शुभ लेश्याएँ हैं। उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं कि आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान में कृष्णलेश्या, नीललेश्या तथा कापोतलेश्या रहती है, क्योंकि ये दोनो अशुभध्यान ही है। “आर्त ध्यान में कुछ कम क्लिष्ट भाव वाली कापोत, नील और कृष्ण लेश्या होती है और रौद्र ध्यान में अत्यंत संक्लिष्ट परिणाम के रूप में कापोत, नील और कृष्ण लेश्याएँ संभव है। धर्म ध्यान में निर्मल अध्यवसाय होने से तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम भेद से क्रमशः तेजोलेश्या, १४०. तेयासरीरप्पओग बन्धे णं भन्ते! कालओ केवचिरं होई? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते तं जहा-अणाइये वा, अपज्जवसिए, अणाइए वा, सपज्जवसिए। कम्मासरीरपओग बन्धे अणाइये सपज्जवसिए, अणाइए अपज्जवसिए वा एव जहा तेयगस्स। -भगवती, श. ८, उ.६, सूत्र ३५१ १४१. आत्मनि कर्मपुद्गलानाम लेशनात्-संश्लेषणात् लेश्या, योग परिणामाश्चैताः -वही १/२/प्र. ६८ की टीका १४२. कषायोदयरंजिता योगप्रवृत्ति लेश्या -तत्त्वार्थराजवार्तिक -२१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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