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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / १०६ " आकाशप्रदेश की तरह उत्कृष्ट- अनंत की संख्या वाले भव्य जीवों का उच्छेद कभी नहीं होगा। "" ,१३७ क्योंकि जो अनंत है, उसका अंत (उच्छेद) संभव नहीं है। विशेषावश्यकभाष्य में भी भगवान् महावीर मंडिक के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं- “भव्य जीव अनंत हैं और उनका अनंतवाँ भाग ही सिद्ध हुआ है, अतः मंडिक कालाणुओं की तरह भव्य जीव अनंत हैं। जैसे काल का अंत नहीं है, उसी तरह अन्य जीवों का भी सर्वथा उच्छेद नहीं होता है । " नवतत्त्वप्रकरण में भी इसी प्रकार कहा गया है । १३८ अनागतकाल की समग्र राशि में से प्रत्येक क्षण में एक-एक समय वर्तमानरूप बनने से उस राशि में प्रत्येक क्षण हानि होने पर भी अनन्त परिमाण होने से जैसे उसका उच्छेद कभी संभव नहीं है, अथवा आकाश के अनंत प्रदेशों में से प्रति समय एक-एक प्रदेश को अलग किए जाने पर भी जैसे आकाश-प्रदेशों का उच्छेद नहीं होता है, वैसे ही भव्य जीव अनंत होने से प्रत्येक समय उनमें से मोक्ष जाने पर भी भव्य जीवराशि का कभी भी उच्छेद नहीं होता है । यह भव्यत्व कब तक रहेगा? क्या यह मोक्ष प्राप्ति के बाद भी रहेगा? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए उ. यशोविजयजी कहते हैं- “घट का प्राग्भाव अनादि स्वभाववाला है, तो भी घट की उत्पत्ति के समय उसका नाश हो जाता है, उसी प्रकार स्वाभाविक भव्यत्व का नाश हो जाता है । "१३६ मोक्ष प्राप्ति के पहले जीव का भव्यत्व कभी भी नष्ट नहीं होता है, अनादिकाल से चल रहा है, किंतु मोक्ष-प्राप्ति के बाद भव्यत्व नहीं रहता है, इसकी आवश्यकता भी नहीं रहती है। जीव का जीवन यह उपादान कारण है और जीव का भव्यत्व यह सहकारी कारण है, मोक्षप्राप्ति के बाद सहकारी कारण नष्ट हो जाता है, क्योंकि इसकी आवश्यकता नहीं रहती है और जीवत्व का नाश नहीं होता है, क्योंकि यह उपादान कारण है। भव्यजीव आध्यात्मिक विकास मार्ग में क्रमशः आगे बढ़ता हुआ सभी कर्मों का क्षय १३७. भव्वाणमणतत्तणमणंत भागो व किह व मुक्कोसिं कालादओ व मंडिय। महवयणाओ व पडिवज्ज- विशेषावश्यकभाष्य - १८३० १३८. इक्करस निगोयस्स अनंतभागो सिद्धिगओ - नवतत्त्वप्रकरण ( अ ) स्वाभाविकं च भव्यत्वं कलशप्रागभाववत् नाशकारणसाम्राज्याद्विनश्यन्न विरूध्यते । ॥७०॥ - १३६ . - अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी मिथ्यात्वत्यागाधिकार ( ब ) जह धडपुत्वा भावोऽणाइसठावो वि सनिहणो एवं जइ भव्वत्ता भावो भवेज्ज किरियाए को दोसो - विशेषावश्यकभाष्य - १८२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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