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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १०७ है।"१३३ समान लक्षणों वाली वस्तुओं में भी उत्तरभेद हो सकते हैं। जिस द्रव्य में चेतना गुण है, उसे जीव कहते है और जिन द्रव्यों में चेतना गुण नहीं है, जैसे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल, इनमें जड़त्व होने से उन्हें अजीव कहते हैं। उसी प्रकार जिन जीवों में मोक्ष जाने की योग्यता है, उन जीवों को भव्य कहते है और जिनमें मोक्ष-प्राप्ति की योग्यता नहीं हैं, उन्हें अभव्य कहते हैं। भव्यत्व भी दो प्रकार का होता है-(१) भव्य और (२) जातिभव्य। जातिभव्य जीव वे होते हैं, जिनमें मोक्षप्राप्ति की योग्यता होने पर भी इनको अनुकूल सामग्री का योग कभी भी नहीं मिलता है; इसलिए जातिभव्य जीव भी कभी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते हैं। प्रश्न यह उठता है कि दुर्भव्य या जातिभव्य में भव्यत्व रहने पर भी मोक्ष प्राप्त क्यों नहीं कर सकते हैं? इस प्रश्न का उत्तर उपाध्याय यशोविजयजी ने एक दृष्टान्त द्वारा समझाया कि "स्वयंभूरमण समुद्र के मध्य तल में कोई पत्थर रहा हुआ हो और उस पत्थर से प्रतिमा बनने की सभावना है, परंतु उसे कभी भी बाहर निकलने का योग ही प्राप्त नहीं होता है, तो प्रतिमा बनाने की बात ही कहाँ रही? उसी प्रकार जातिभव्य जीवों को संज्ञी पंचेन्द्रिय बनने की शक्यता भी नहीं होती, तो फिर मनुष्य-भव प्राप्त कर रत्नत्रय की आराधना करके मोक्ष प्राप्त करने की बात कैसे सम्भव है?३४ स्थानांगसूत्र में भी कहा गया है कि सूक्ष्म एकेन्द्रिय या अनंतकाय सिवाय के जितने भव्य हैं, उसमें कोई भी जातिभव्य नहीं कहलाता है, क्योंकि जातिभव्य को प्रसादिक प्राप्त करने की सामग्री का योग ही नहीं मिलता है। सारांश यह है कि “नियम ऐसा बनाया जा सकता है कि तदयोग्य सामग्री प्राप्त होने पर, जो द्रव्य प्रतिमा योग्य है, उन्हीं से प्रतिमा बनती है, अन्य से नहीं, और जो जीव भव्य हैं, वे ही सिद्धिगमन योग्य सामग्री प्राप्त होने पर मोक्ष जाते हैं, अन्य नहीं जाते हैं, किन्तु ऐसा नियम १३३. अणाइपरिणामिए -....जीवास्तिकाए..... भवसिद्धिआ, अभवसिद्धिओ। से तं अणाइपरिणामिए -अनुयोगद्वार सूत्र, २५० १३४. (अ) प्रतिमादलवत् क्वापि फलाभावेऽपि योग्यता।।७।। -मिथ्यात्वत्यागाधिकार-अध्यात्मसार-उ.यशोविजयजी (ब) भण्णइ भव्वो जोग्गो न य जोग्गत्तेण सिज्झए सव्वो। जह जोग्गम्मि वि दलिये सव्वम्मि न कीरए पड्मिा । विशेषावश्यकभाष्य गाथा -१८३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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