________________
१०६ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
इस प्रकार आत्मा कर्मबन्धन से मुक्त होकर अनंत सुख को प्राप्त कर सकती है और यही अनंत आत्मिक सुख मोक्ष कहलाता है। इस प्रकार तर्क या अनुमान से विचारने पर 'मोक्ष' की सिद्धि में कोई बाधा नहीं आ सकती है।
पुनः जीव और कर्म का सम्बन्ध परम्परा की दृष्टि से अनादि है, किन्तु किसी कर्म विशेष का बन्ध अनादि नहीं है। कर्म-विशेष किसी काल में बंधा है और अपनी स्थिति पूर्ण होने पर नष्ट हो जाता है, अतः नवीन कर्मों का बन्ध नही हो तो कर्म से मुक्ति सम्भव है ।
आत्मा (जीवों) के प्रकार
संसार में जो जीव हैं, उनका विभिन्न शास्त्रों में अनेक प्रकार से वर्गीकरण किया गया है। मोक्ष प्राप्ति की योग्यता की अपेक्षा से संसार में रहे हुए जीव दो प्रकार के होते हैं - (१) भव्य तथा (२) अभव्य ।
१३०
कोई यह प्रश्न करें कि जीवों में जीवत्व एक समान रहा हुआ है, तो फिर जीवों के भव्यत्व और अभव्यत्व इस प्रकार भेद करने की क्या आवश्यकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं- “जैसे द्रव्यत्व समान होने पर भी जीवत्व और अजीवत्व का भेद है, उसी प्रकार जीव-भाव समान होने पर भी भव्यत्व और अभव्यत्व का भेद है। " ‘विशेषावश्यकभाष्य' में भी कहा गया है- "जैसे जीव और आकाश में द्रव्यत्व समान होने पर भी उनमें चेतनत्व-अचेतनत्व का भेद स्वाभाविक हैं, वैसे ही जीवों में भी जीवत्व समान होने पर भी भव्याभव्यत्व का भेद है।' तत्त्वार्थसूत्र में भी “ जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन पारिणामिक भाव बताए हैं। " यह जीव के असाधारण भाव हैं, जो किसी भी अन्य द्रव्य में नहीं मिलते हैं। अनुयोग - द्वार सूत्र में कहा गया है कि " जीवास्तिकाय का भव्यत्व और अभव्यत्व - यह अनादि पारिणामिक भाव
१३१ ""
१३२
१३०. द्रव्यभावे समानेऽपि जीवाजीवत्वभेदवत् ।
जीवभावसमानेऽपि भव्याभव्यत्वयोर्भिदा । । ६६ ।। ( ४५२). - मिथ्यात्वत्यागाधिकार - अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी
१३१. दव्वाइत्ते तुल्ले, जीव नहाणं सभावओ भेओ ।
जीवाजीवाइगओ जह, तह भव्वे यर विसेसो ।। - विशेषावश्यकभाष्य - १८२३ १३२. जीवभव्याभव्यत्वादीनि च - १७१ - द्वितीय अध्ययन तत्वार्थसूत्र - उमास्वाति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org