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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १०३
स्वीकार करते हैं, तो जड़ घट में भी धर्मादि रह सकते हैं- यह स्वीकारना
पड़ेगा।"१२१
सांख्यदार्शनिक कर्त्तत्व और भोक्तत्त्व ये दो बद्धि के गण बताते हैं। उ. यशोविजयजी कहते हैं- "कति और भोग को बुद्धि-गुण मानते हो, तो फिर बंध और मोक्ष भी बुद्धि का ही होगा, आत्मा का नहीं, तो फिर कपिल मुनि जो बंध और मोक्ष आत्मा में घटाते हैं, वह मिथ्या होगा।"१२ इस प्रकार कर्तापण तथा भोक्तापण को बुद्धि आश्रित मानने पर पुरुष के बंध और मोक्ष की सिद्धि नहीं होगी। यदि पुरुष या आत्मा का बंधन नहीं, तो फिर मुक्ति की बात किस प्रकार होगी?
यदि पुरुष (आत्मा) एकान्त नित्य, निर्विकारी, अकर्ता, अभोक्ता, शुद्ध हो, तो फिर बंध और मोक्ष किस प्रकार घटित होता है?
इसके उत्तर में सांख्यदर्शन कहता है कि वस्तुतः बुद्धि का ही बंध और मोक्ष है, परंतु उसका उपचार पुरुष में करते हैं, परंतु यह बात तर्कसंगत नहीं है। "क्योंकि परिश्रम एक करे और फल दूसरा भोगे। स्वयं के परिश्रम से दूसरे को मोक्ष मिले, तो ऐसा श्रम, अर्थात् संयम, त्याग-तपश्चर्या आदि कौन करेगा? इस प्रकार हो, तो पूरा मोक्षशास्त्र ही व्यर्थ बन जाएगा।"१२३
संसार में सुख-दुःख प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। जीव शुभ या अशुभ कार्य करते हुए दिखाई देता है, यानी जीव शुभ-अशुभ कर्म बांधता है और उसी के अनुसार फल भोगता है। अतः आत्मा ही कर्म की कर्ता तथा भोक्ता भी है। वह एकान्त नित्य भी नहीं है और एकान्त अनित्य भी नहीं है। भगवतीसूत्र में भगवान्
१२१. प्रकृतावेव धर्मादिस्वीकारे बुद्धिरेव का
सुवचश्च घटादौ स्यादीदृग्धर्मान्वयस्तथा।।५८ ।। -मिथ्यात्वत्यागाधिकार-अध्यात्मसार- उ.
यशोविजयजी १२२. कृतिभोगौच बुद्धश्चेद् बंधो मोक्षश्च नात्मनः
ततश्चात्मानमुद्दिश्य कूटमेतद्यदुच्यते ।।५६ ।। -मिथ्यात्वत्यागाधिकार-अध्यात्मसार- उ.
यशोविजयी १२३. एतस्य चोपचारत्वे मोक्षशास्त्रं वृथाऽखिलम्
अन्यस्य हि विमोक्षार्थे न कोऽप्यन्यः प्रवर्तते।।६।। - मिथ्यात्वत्यागाधिकार-अध्यात्मसार-उपाध्याय यशोविजयजी .
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