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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
कारण या कार्य में से किसी भी एक की सिद्धि से दोनों की भी सिद्धि हो जाती है। बौद्ध कहते हैं कि आप जैनों ने तो यह अवधारणा प्रस्तुत की है कि कारण का ज्ञान कार्य को नहीं बताता है और कार्य का ज्ञान कारण को नहीं बताता है। यह आपका कथन उचित नहीं है। उन दोनों में किसी एक के ज्ञान से उभय अर्थात् कार्य और कारण- दोनों का ज्ञान हो जाता है और फिर इन दोनों से अर्थक्रियाकारित्व का निश्चय हो जाता है।
जैनों का समाधान - इसका खण्डन करते हए जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि यदि आप बौद्धों के अनुसार कारण या कार्य में से किसी एक का ज्ञान होने से दोनों का ज्ञान हो जाता है, फिर तो नारियल द्वीपवासी अज्ञानी मनुष्य को भी अग्नि को देखने मात्र से यह बोध हो जाना चाहिए कि अग्नि से धूम की उत्पत्ति होती है, अर्थात् अग्नि-रूपी कारण से धूम-रूपी कार्य उत्पन्न हो जाता है, किन्तु ऐसा बोध तो होता नहीं है। इसी प्रकार, मात्र धुएँ को देखने के साथ ही यह भी बोध हो जाना चाहिए कि यह धुआँ अग्नि-रूपी कारण से उत्पन्न हुआ है, किन्तु मात्र कारण या कार्य में से किसी एक के प्रत्यक्ष-ज्ञान से ही सत् के अर्थक्रियाकारित्व का ज्ञान सम्भव नहीं है। इसके पश्चात्, अब यदि आप तीसरे पक्ष के संबंध में यह कहते हो कि उभयग्राही प्रत्यक्ष ज्ञान से अर्थक्रियाकारित्व का बोध हो जाता है, तो आप बौद्धों का यह कथन भी उचित नहीं है, क्योंकि कारण और कार्य- ये दोनों क्रमभावी पर्यायें हैं। एक ही क्षण में कारण और कार्य की पर्यायें कैसे संभव होंगी? दूसरे, आपके मत में तो सभी पर्यायें क्षणिक हैं, अतः, क्रमभावी कारण और कार्य का ज्ञान भी सम्भव होगा, क्योंकि आपके क्षणिकता के सिद्धांत के अनुसार कारण के नष्ट होने पर ही कार्य होता है। कार्य-कारण सहभावी नहीं हैं, अतः, कारण-कार्य का युगपत-ज्ञान भी उनके क्षणिक होने से प्रत्यक्ष का विषय नहीं बन सकता है। आपके बौद्धदर्शन में तो सत्ता क्षणमात्र ही रहती है, अतः, क्षणमात्र रहने वाली सत्ता का प्रत्यक्ष, कार्य के रूप में, या कारण के रूप में, या उभयरूप में सम्भव नहीं है। कदाचित् आपका प्रत्यक्ष ज्ञान कार्य, कारण या उभय का ग्राहक बन भी जाए, तो वह ज्ञान क्षणिक के स्थान पर अक्षणिक बन जाएगा, क्योंकि सत्ता का क्षण और उसके ज्ञान का क्षण अलग-अलग होंगे
59 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 707
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