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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
और यदि ऐसा नहीं मानेंगे, तो प्रत्यक्ष के 'सत्व' हेतु में व्यभिचार - दोष उत्पन्न हो जाएगा । ॐ
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बौद्धों द्वारा स्वपक्ष का मण्डन इस पर बौद्ध - दार्शनिक जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि के प्रत्युत्तर में कहते हैं कि कारणग्राही या कार्यग्राहीदोनों प्रकार के प्रत्यक्ष में से किसी भी एक प्रकार के प्रत्यक्ष से मानसिक - विकल्प अर्थात् विचार-विशेष उत्पन्न होता है और इसी विचार-विशेष से अर्थक्रियाकारित्व का निर्णय हो जाता है ।"
रत्नप्रभ की समीक्षा
इसके प्रत्युत्तर में रत्नप्रभसूरि का यह कहना है कि यदि आप विचार - विशेष (विकल्प) से ही अर्थक्रियाकारित्व का निर्णय हो जाना मानेंगे, तो फिर आप प्रत्यक्ष से अर्थक्रियाकारित्व का निर्णय हुआ, ऐसा नहीं कह सकते हैं। 2
बौद्धों द्वारा स्वपक्ष का समर्थन
बौद्ध इस पर बौद्ध कहते हैं कि प्रत्यक्ष से उत्पन्न होने वाला विकल्प-विशेष (विचार - विशेष ) पूर्वकाल में हुए प्रत्यक्ष का ही विषय होता है । इस प्रकार, प्रत्यक्षजन्य विकल्प - विशेष ही वस्तु के अर्थक्रियाकारित्व का निश्चय करता है । तात्पर्य यह है कि पूर्वकाल में जिस विषय का प्रत्यक्ष हुआ है और उत्तरकाल में पुनश्च जब उसी विषय का प्रत्यक्ष होता है, तो दोनों के प्रत्यक्ष से, विकल्प - विशेष उत्पन्न होता है। इस प्रकार, इन दोनों के मध्य रहे हुए विकल्प - विशेष द्वारा प्रत्यक्ष से ही अर्थक्रियाकारित्व का निर्णय होता है। 3
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रत्नप्रभसूर द्वारा बौद्धों की समीक्षा
जैन बौद्ध - दार्शनिकों के उक्त कथन की समीक्षा करते हुए जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि पूर्वकाल में जिस किसी भी पदार्थ का प्रत्यक्ष हुआ है, वह प्रत्यक्ष क्या कारण का हुआ था ? या कार्य का ? या फिर कारण और कार्य- दोनों का हुआ था ? यह बताया जाए कि इनमें से किसका प्रत्यक्ष हुआ ? पूर्वकाल में जिसका प्रत्यक्ष हुआ, पुनः उसी विषय
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60 'रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 707, 708
61 रत्नाकरावतारिका, भाग II रत्नप्रभसूरि, पृ. 708 62 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 708 'रत्नाकरावतारिका, भाग II रत्नप्रभसूरि, पृ. 708
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