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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
का प्रत्यक्ष उत्तरकाल में भी हुआ- ऐसा कथन तो कर दिया, किन्त यह स्पष्टीकरण तो किया ही नहीं कि वह प्रत्यक्ष किसका हुआ था, क्योंकि यह तो निश्चित है कि कारण या कार्य, या उभय, इनमें से किसी न किसी का तो वह प्रत्यक्ष हुआ होगा। कदाचित् आप (बौद्ध) यह कह दें कि प्रत्यक्ष तो मात्र कारण का ही ज्ञान करता है, अर्थात् ज्ञान कारण को ही प्रत्यक्ष का विषय बनाता है, कार्य को प्रत्यक्ष का विषय नहीं बनाता है, या फिर आप यह कहें कि प्रत्यक्ष तो मात्र कार्य का ही ज्ञान करता है, अर्थात कार्य को प्रत्यक्ष का विषय बनाता है, कारण को नहीं, वह तो एक का ही प्रत्यक्ष करेगा, लेकिन दूसरे का प्रत्यक्ष कैसे करेगा ? किन्तु एक का ज्ञान करे, और दूसरे का ज्ञान नहीं करे, तो यह तो उचित नहीं है। कार्य-कारणभाव तो उभय-विषयक हैं। इस उभय-विषयक का प्रत्यक्ष-ज्ञान कैसे करेगा, अर्थात् अर्थक्रियाकारित्व का प्रत्यक्ष ज्ञान कैसे करेगा ? उदाहरणस्वरूपमिट्टी से घट की उत्पत्ति होती है। वस्तुतः, मिट्टी और घट- दोनों में द्रव्यत्व तो एक ही रहा हुआ है। अब जब मिट्टी से घट की पर्याय बनी, तो हमने मिट्टीरूप कारण का भी और घटरूपी कार्य का भी, अर्थात दोनों पर्यायों का प्रत्यक्षीकरण किया। इसी प्रकार, बाल्यावस्था से यौवनावस्था की प्राप्ति होती है, तो बाल्यावस्था और यौवनावस्था- दोनों का प्रत्यक्ष होता है, किंतु दोनों के बीच जो परिवर्तन की प्रक्रिया होती है, उसका प्रत्यक्ष नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि पदार्थ, कारणावस्था और कार्यावस्था- दोनों अवस्थाओं में मौजूद रहता है और दोनों (कार्य-कारणभाव)का ही प्रत्यक्ष-ज्ञान होता है। दूसरे, आपने (बौद्ध ने) प्रत्यक्ष से उत्पन्न होने वाले विकल्प-विशेष को कार्य और कारण-दोनों का ग्राहक अर्थात् उभयग्राही माना है,तो उस विकल्प-विशेष से प्रत्यक्षीकरण का निश्चय कैसे होगा ? क्योंकि आपने तो प्रत्यक्ष को या तो मात्र कारणग्राही माना है, या फिर मात्र कार्यग्राही, ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष का जो व्यापार (क्रिया) है, वह भी विकल्प से ही निश्चित हुआ, ऐसा मानना होगा, या फिर विकल्प को भी मात्र किसी एक का ग्राही मानना होगा। यदि विकल्प भी मात्र कारण का अथवा मात्र कार्य का ग्राही होगा, तो किसी एक का ग्राही होने से भी अर्थक्रियाकारित्व का निश्चय कैसे होगा ? तात्पर्य यह है कि न तो कार्य या कारण में से किसी एक के ग्राही प्रत्यक्ष से अर्थक्रियाकारित्व का निश्चय होता है, न किसी एक ग्राही विकल्प से ही अर्थक्रियाकारित्व का निश्चय होता है। उभयग्राही-प्रत्यक्ष से ही अर्थक्रियाकारित्व का निश्चय होता है, जबकि आप बौद्धों ने तो प्रत्यक्ष को नहीं, अपितु विकल्प को उभयग्राही
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