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________________ 100 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा माना है, तो उभयग्राही विकल्प से मात्र एकग्राही-प्रत्यक्ष के व्यापार का, अर्थात् प्रत्यक्ष के विषय का बोध कैसे होगा? अर्थात् नहीं होगा। इस प्रकार, से, शब्दादि धर्मी में अर्थक्रियाकारित्वरूप सत्व (हेतु) प्रत्यक्ष-प्रमाण से प्रतीत होता है- ऐसा आप बौद्धों का कथन युक्ति-युक्त नहीं है, इसलिए आप क्षणिकवादियों को तो किसी भी प्रकार से अर्थक्रिया की प्रतीति होती नहीं है, अतः, वादी बौद्धों द्वारा सत्व की सिद्धि हेतु अर्थक्रियाकारित्वरूप जो हेतु दिया गया है, वह हेतु असिद्ध है, अर्थात् 'असिद्ध हेत्वाभासरूप है। पुनः, जैनाचार्य बौद्धों से कहते हैं कि अनेकान्तिक हेत्वाभास के भी दो रूप होते हैं- 1. संदिग्धानेकान्तिक हेत्वाभास 2. निश्चितानेकान्तिकहेत्वाभास। यदि हेतु साध्य के अभाव में, अर्थात् विपक्ष में निश्चित रूप से होता ही हो, तो वह निश्चित-अनेकान्तिकहेत्वाभास कहलाता है। इसी प्रकार, यदि उसके साध्य के विपक्ष में होने पर किसी प्रकार की शंका हो, तो वह हेतु संदिग्धानेकान्तिक-हेत्वाभास कहलाता है। आपने शब्द (पक्ष) की क्षणिकता (साध्य) के लिए सत्व-हेतु दिया था। आप बौद्ध-दार्शनिक वस्तु को एकान्तरूप से क्षणिक मानते हो, इसलिए आपकी क्षणिकता की अवधारणा एकान्तिक है, जबकि आपका साध्य अर्थात् सत्व, क्षणिक एवं अक्षणिक अर्थात् नित्यानित्य- ऐसे उभय-स्वभाववाला है। यदि वस्तु नित्यानित्य या क्षणिकाक्षणिक- ऐसी उभय-स्वरूपवाली है, तो वह साध्याभाव-रूप विपक्ष हुई। इस प्रकार, एकान्त-क्षणिक नामक साध्य का क्षणिकाक्षणिक- यह विपक्ष हुआ। क्षणिकाक्षणिक वस्तु में अर्थक्रियाकारित्व क्रम से तो घटित हो सकता है, परन्तु युगपत्-रूप से घटित होता नहीं है, अतः, क्षणिकाक्षणिक नामक विपक्ष में सत्व नामक साध्य अनिर्णय की स्थिति में ही रहता है। उसमें भी क्रमाक्रम-रूप से अर्थक्रियाकारित्व संभव हो सकता है। इस प्रकार, सत्व-हेतु विपक्ष में भी संभव है। इस आधार पर, आपका यह अनुमान कि 'शब्द क्षणिक है, क्योंकि वह सत् है, संदिग्धानेकान्तिक-हेत्वाभास से भी युक्त हुआ। बौद्ध- इस हेत्वाभास की सिद्धि के लिए जैनों से आग्रह करते हुए बौद्ध कहते हैं कि क्षणिकाक्षणिक वस्तु में क्रमाक्रम नामक उपलंभ रहता है। इसे आप स्पष्ट कीजिए ? इसके प्रत्युत्तर में जैनों का कथन यह है कि 64 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 708, 709 65 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 709, 710 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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