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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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कोई भी एक कार्य सम्पन्न करके दूसरा कार्य करना- यह क्रम है। उदाहरणस्वरूप-घट है, घट में जलधारण करना- यह अर्थक्रिया है। पानी से भरा हुआ घट तो एक है, किन्तु उस घट को क्रमशः (बारी-बारी से) अनेक स्त्रियाँ उठाती हैं। घट को मस्तक पर उठाने में उत्साह, उठाने की शक्ति, आयु, शरीर-सौष्ठव, द्रव्यलाभ आदि ये सभी सहकारी-कारण कहलाते हैं। वे सभी स्त्रियाँ उस जल से भरे घट को बारी-बारी से मस्तक पर उठाती हैं। यद्यपि उनको घट उठाने में श्रम जरूर होता है, किन्तु चाहे उपादान-कारणरूप पदार्थ हो, चाहे सहकारी-कारणरूप कोई भी कार्य हो, कार्य तो क्रमपूर्वक ही होता है, अक्रम से कार्य नहीं होता। एकान्त-क्षणिकवाद में तो क्रम बनता नहीं है, क्षणिकाक्षणिक में ही क्रम बनता है, अतः, सत्व क्षणिकाक्षणिक या नित्यानित्य है, यही मानना होगा।
पुनः, जैन बौद्धों से प्रश्न करते हैं कि आप (बौद्ध) कदाचित् यह तर्क दें कि बीज में उगने की शक्ति रही हुई है। बीज में उगने की वह शक्ति तो उगते समय भी है और उगने से पहले भी थी। बीज में से अंकुर उत्पन्न होता है। बीज में से अंकुर के निकलते समय से बीज की उस शक्ति की अभिव्यक्ति होती है। अभिव्यक्ति की दृष्टि से तो बीज क्रम से ही उगेगा। उगने की स्थिति में अक्रम संभव नहीं। सत्ता में उगने की पर्याय तो अवश्य रहती है, किन्तु वह पर्याय भी क्रम से ही अभिव्यक्त होती है। जब आप बौद्ध-दार्शनिक यह कहते हैं कि बीज में उगने की शक्ति तो दीर्घकाल से, अर्थात उसके अस्तित्व में आने के समय से रही हई है, तो फिर आप भला पदार्थ को क्षणिक कैसे मान सकते हो। इससे आपका क्षणिकवाद तो खंडित हो गया, अतः, आपको पदार्थ को क्रमाक्रम से अर्थक्रिया करने वाला तथा नित्यानित्य ही मानना होगा। एकान्तरूप से पदार्थ को क्षणिक मानने की आपकी अवधारणा उचित नहीं है।"
बौद्ध - इस पर, बौद्ध जैनों से प्रश्न करते हैं कि यदि आप यह कहते हैं कि बीज में उगने की शक्ति है और बीज से ही अंकुर उत्पन्न होता है, अर्थात् कारण से कार्य उत्पन्न होता है, बिना कारण के कार्य की उत्पत्ति में समय लग सकता है, किन्तु सम्पूर्णरूपेण समर्थ कारण के होते हुए कार्य के उत्पन्न होने में समय क्यों लगता है ? तात्पर्य यह है कि जब
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