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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
बीज में उगने की शक्ति है, तो फिर तत्काल ही अंकुर उत्पन्न हो जाना चाहिए, अंकुर के उत्पन्न होने में विलम्ब क्यों होता है ? 68
जैन जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि रत्नाकरावतारिका में इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहते हैं कि कोई भी पदार्थ बिना विलंब के तत्काल ही कार्य करने में समर्थ होता है- ऐसा एकान्त - सिद्धांत हम नहीं मानते हैं । प्रत्येक पदार्थ में द्रव्य और पर्याय उभयात्मक-धर्म रहे हुए हैं । द्रव्यरूप से, अर्थात् उपादान - कारण के रूप में जो शक्ति पदार्थ में है, उस अपेक्षा से पदार्थ कार्य करने में समर्थ कहलाता है (द्रव्य की अपेक्षा से पदार्थ कार्य करने में समर्थ होता है), किन्तु सहकारी - निमित्त कारणों के अभाव में कार्य नहीं होता है, अर्थात् नवीनपर्याय प्रकट नहीं होती है, अतः, पर्याय की अपेक्षा से वही पदार्थ कार्य करने में असमर्थ भी कहा जाता है।
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पुनः, जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि अनाज की कोठी के तल में जो बीज है, वह बीज भी मिट्टी, पानी, हवा एवं प्रकाश- इन सहकारी - कारणों के मिलने पर ही अंकुरित हो पाता है। चूँकि कोठी के बीज में प्रथमतः उगने की शक्ति थी ( उपादान - कारण स्वयं में उपस्थित था), किन्तु सहकारी (निमित्त ) कारणों के मिलने पर ही वह अंकुरित हो पाता है, लेकिन कुछ बीज ऐसे भी होते हैं, जिनमें उगने की शक्ति ही नहीं है, अर्थात् उनकी उगने की शक्ति नष्ट हो चुकी है, उनको चाहे कितने ही सहकारी - कारण मिल जाएं, किन्तु उग नहीं सकते हैं, अतः, जिस बीज में उगने की शक्तिरूप पर्याय नष्ट हो गई है, वह उगने में असमर्थ है । पदार्थ द्रव्य की अपेक्षा से सामर्थ्य वाला हो सकता है, किन्तु पर्याय की अपेक्षा से सामर्थ्यरहित हो सकता है। यदि हम यह मान लें कि बीज में उगने की शक्ति तो है, किन्तु यदि उसे वैसे सहकारी - कारण नहीं मिलते हैं, तो वह उग भी नहीं सकता है, इसलिए हम जैनों का कथन है कि बीजरूप वह द्रव्य समर्थ और असमर्थ, अक्षेपक्रिया -क्षेपक्रिया (विलंब - अविलंब) उभयात्मक स्वभाव वाला है, जिसमें किसी प्रकार की कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती ।
बौद्ध बौद्ध- दार्शनिक जैनों के समक्ष यह आपत्ति प्रस्तुत करते
हैं कि यह ठीक है कि आप (जैन) जो यह कहते हैं कि कोठी के बीज - द्रव्य में पर्याय - शक्ति अनभिव्यक्त रहती है, क्योंकि बिना
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68 रत्नाकरावतारिका, भाग II रत्नप्रभसूरि, पृ. 711
69 'रत्नाकरावतारिका, भाग II रत्नप्रभसूरि, पृ. 711, 712
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