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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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सहकारी-कारणों के कोठी में रहा हआ कोई बीज उगता नहीं है, किन्तु भूमि में रहा हुआ वही बीज सहकारी-कारणों के मिलने पर अपनी पर्याय-शक्ति को अभिव्यक्त कर अंकुरित हो जाता है, तो हम बौद्ध आप जैन-दार्शनिकों से यह प्रश्न करते हैं कि बीज-द्रव्य में रही हुई वह पर्याय-शक्ति, अर्थात उगने की शक्ति 'बीज' द्रव्य से 1. भिन्न है ? या 2. अभिन्न है ? या 3. भिन्नाभिन्न है ? यदि आप पर्याय-शक्ति को बीज-द्रव्य से भिन्न कहते हो, तो भला उस पर्याय-शक्ति से बीज-द्रव्य को क्या लाभ है ? यथा- अन्धे की आँख में अंजन लगाने से क्या फायदा ? अंजन से सुन्दरता में कोई विशेष वृद्धि तो होने वाली नहीं है। इसी प्रकार जब पर्याय बीज-द्रव्य से भिन्न ही है, तो पर्याय से द्रव्य को क्या लाभ होने वाला है ? अर्थात् कुछ भी नहीं, अतः, भूमि में पड़े हुए उस बीज को भी कोठी के बीज के समान ही मानना पड़ेगा। बीज-द्रव्य से हवा, पानी, मिट्टी, प्रकाश (आतप) आदि सहकारी-कारण अत्यन्त भिन्न होते हुए भी उनकी सन्निधि (समीपता) से बीज-द्रव्य अंकुरित हो सकता है, अतः, द्रव्य से द्रव्य की पर्याय तो भिन्न ही प्रतीत होती है। चाहे वह पर्याय-शक्ति बीजरूप में द्रव्य में ही क्यों न निहित हो, किन्तु वह प्रत्यक्ष का विषय नहीं बनती है। हवा, पानी, मिट्टी, आतप आदि सहकारी-कारण बीज-द्रव्य से भिन्न होते हुए भी बीज-द्रव्य को उनका सान्निध्य मिलने पर बीज उग सकते हैं। तात्पर्य यह है कि जब सहकारी-कारण ही बीज-द्रव्य को अंकुर के रूप में उत्पन्न करते हैं, तो फिर द्रव्य में पयार्यशक्ति को मानने की भी क्या आवश्यकता है। दूसरे, यदि पर्याय-शक्ति और सहकारी-कारणदोनों ही बीज-द्रव्य से भिन्न ही हैं, तो फिर सहकारी-कारणों को ही क्यों न बीज-द्रव्य के उगने का हेतु मान लिया जाए ? सहकारी-कारण तो हमारे प्रत्यक्ष का भी विषय बनते हैं। यदि आप पर्याय-शक्ति को मान भी लेंगे, तो बीज-द्रव्य को तो कोई लाभ नहीं है, अतः, सहकारी-कारणों को ही कार्य का हेतु मानने में क्या आपत्ति है ?"
पुनः, बौद्ध-दार्शनिक जैनों से कहते हैं कि यह ठीक है कि बीज-द्रव्य को उगने में सहकारी-कारणों की अहम भूमिका हो, किन्तु सहकारी-कारण भी बीज-द्रव्य से तो अत्यन्त भिन्न ही हैं, तो फिर सहकारी-कारणों के मानने से भी बीज-द्रव्य को कुछ विशेष लाभ तो होने वाला नहीं है, फिर बीज किससे उगेगा ? क्या बीज में जो उगने की
70 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 712
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