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________________ 96 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा होगा? ऐसे, इन तीनों प्रकार के प्रत्यक्षों में से कौन से प्रत्यक्ष-प्रमाण से अर्थक्रियाकारित्व का बोध होगा ? आप बौद्धों ने पूर्व में जो कथन किया था कि सत् वही होता है, जो क्षणिक (प्रतिक्षण परिवर्तनशील) होता है और सत-धर्मी प्रत्यक्ष-प्रमाण से प्रसिद्ध ही है, तो यहाँ हम जैनों का आप बौद्धों से यही प्रश्न है कि आपका उपर्युक्त कथन तीनों प्रकार के प्रमाणों में से कौन-से प्रत्यक्ष-प्रमाण से सिद्ध होता है ? पुनः, जैन कहते हैं कि यदि आप बौद्ध-दार्शनिक प्रथम तर्क के आधार पर यह कहते हैं कि अकेला कारण ही प्रत्यक्ष-प्रमाण का विषय बनता है, तो मात्र कारण के प्रत्यक्ष से उसके अर्थक्रियाकारित्व का बोध होना संभव नहीं है। आपके अनुसार, प्रत्यक्षप्रमाण कार्य को तो प्रत्यक्ष का विषय नहीं बनाता है, मात्र कारण को ही प्रत्यक्ष का विषय बनाता है, इसलिए मात्र कारण के प्रत्यक्ष से उसके अर्थक्रियाकारित्व का बोध नहीं होगा। यदि आप बौद्ध दूसरे पक्ष के समर्थन में यह कहते हैं कि प्रत्यक्ष-प्रमाण तो मात्र कार्य को ही अपना विषय बनाता है, वह कारण को अपना विषय बनाने में समर्थ नहीं है, तो बिना कारण के मात्र कार्य से भी उसके अर्थक्रियाकारित्व का बोध संभव नहीं है। इस प्रकार, प्रथम दोनों पक्षों में से किसी को भी स्वीकार करने पर अर्थक्रियाकारित्व का बोध संभव नहीं है। अर्थक्रियाकारित्व का यथार्थ-बोध तो कारण और कार्य- दोनों, अर्थात् उभयग्राही-ज्ञान से ही संभव है, क्योंकि घट, पट आदि कारणों से घट का जलधारण करने के कार्य का और पट के शरीराच्छादन के कार्य का बोध होता है। इस प्रकार, 'यह इसका कारण है और यह इसका कार्य है- ऐसा उभयग्राही-प्रतिभास होने पर सत् के अर्थक्रियाकारित्व का बोध होता है, अतः, कारण और कार्य- दोनों, अर्थात् उभयग्राही-ज्ञान से ही 'अर्थक्रियाकारित्व' का निर्णय एवं यथार्थ-बोध होता है। बौद्ध-दार्शनिकों का प्रतिप्रश्न बौद्ध - इसके प्रत्युत्तर में बौद्ध-दार्शनिक जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि से कहते हैं कि कारणत्व और कार्यत्व- ये दोनों ही पदार्थ के स्वरूप हैं। पदार्थ के इन दोनों स्वरूपों में से किसी भी एक के स्वरूप का ज्ञान हो जाए, तो एक के ज्ञान से दूसरे का भी ज्ञान स्वतः हो जाता है, अर्थात् 57 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 707 58 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 707 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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