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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 95 होने से व्यापक की अनुपलब्धि वाला, अर्थात् अभावरूप ही है, अतः, बौद्ध-दार्शनिकों का जैनों से कहना है कि नित्य-पदार्थ में क्रम से भी और अक्रम से भी अर्थक्रिया नहीं होती तथा क्रमाक्रम से अर्थात् युगपत्-रूप से भी अर्थक्रिया नहीं होती है और अर्थक्रिया करने में असमर्थ पदार्थ असत् ही होता है। इस प्रकार, नित्य-पदार्थ में 'सत्व' (अस्तित्व) रूप लक्षण (गुणधर्म) का अभाव होने से नित्य-पदार्थ को अर्थक्रियाकारित्व में सक्षम होने के लिए तो क्षणिक-पदार्थ में ही विश्राम लेना होता है, अर्थात क्षणिकता (परिवर्तनशीलता) के गुण-धर्म को स्वीकार करना ही होता है। इस प्रकार, यहाँ बौद्ध-दार्शनिक जैनों से कहते हैं कि नित्य-पदार्थ तो स्थिर लक्षण वाला होने से उसमें अर्थक्रिया, चाहे क्रम से हो, या अक्रम से, या क्रमाक्रम से, संभव ही नहीं है, क्योंकि आपके नित्य-पदार्थ में 'सत्व' इस लक्षण का अभाव है। जो पदार्थ सत्व-लक्षण से युक्त होते हैं, वे तो क्षणिक अर्थात् परिवर्तनशील ही होते हैं और ऐसे क्षणिक अर्थात परिवर्तनशील पदार्थ ही अर्थक्रिया करने में समर्थ होते हैं और जो अर्थक्रिया करने में समर्थ होते हैं, वे ही सत्व-लक्षण वाले होते है, अतः, क्षणिक-लक्षण वाले पदार्थ ही सत् होते हैं, यही व्याप्ति उचित हैं, इसलिए आपको हमारे सत्ता की परिवर्तनशीलता के बौद्ध-सिद्धांत को मानने में कोई बाधा नहीं होना चाहिए। बौद्ध-मंतव्य की रत्नप्रभसूरि द्वारा की गई समीक्षा जैन - बौद्धों के उपर्युक्त समस्त तर्कों का खण्डन करते हुए जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्ध-दार्शनिकों से प्रश्न करते हैं कि यह ठीक है कि आप (बौद्ध) प्रत्येक पदार्थ को विनश्वर स्वभाव वाला मानते हैं, तो क्या आप यह बता सकते हैं कि प्रतिक्षण नष्ट होने वाला आपका वह पदार्थ क्या प्रत्यक्ष-प्रमाण का विषय बन सकता है ? प्रथम तो, वह क्षणिक पदार्थ प्रत्यक्ष का विषय होता ही नहीं है। कदाचित् आप यह भी कह दें कि क्षणिक पदार्थ प्रत्यक्ष का विषय बन सकता है, तो आप यह बताइए कि क्षणिक पदार्थ में प्रत्यक्ष-प्रमाण से किस प्रकार से अर्थक्रियाकारित्व की सिद्धि करेंगे ? 1. क्या मात्र कारणरूप पदार्थ को प्रत्यक्ष से ग्रहण करने पर अर्थक्रियाकारित्व का बोध होगा ? या 2. क्या मात्र कार्यरूप पदार्थ को प्रत्यक्ष से ग्रहण करने पर अर्थक्रियाकारित्व का बोध होगा ? या 3. क्या कार्य और कारण- ऐसे उभयग्राही प्रत्यक्ष से अर्थक्रियाकारित्व का बोध 6 रत्नाकरांवतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि. पृ. 705, 706 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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