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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
नहीं है, किन्तु पदार्थ में से उत्पन्न होने वाले कार्य को तो सहकारी-कारणों की अपेक्षा रहती है।
बौद्ध पुनश्च जैनों से कहते हैं कि आपका (जैनों का) इस प्रकार, का कथन भी उचित नहीं है। चूंकि पदार्थ से उत्पन्न होने वाला कार्य तो परतंत्र है, क्योंकि पदार्थ सहकारी-कारणों के अधीन होकर ही किसी कार्य को उत्पन्न करता है, इसलिए कार्य परतंत्र है, इसी प्रकार कार्य को उत्पन्न करने वाला पदार्थ (उपादान-कारण) भी कार्य करने में पूर्णरूपेण समर्थ होता हो, ऐसा भी नहीं है। कार्य उत्पन्न होने में और उपादानकारणरूप पदार्थ उत्पन्न करने में चाहे स्वतंत्र नहीं भी हो, फिर भी कार्य उत्पन्न तो होता ही है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि कार्य को उत्पन्न होने में किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं रहती है। यदि कार्य की उत्पत्ति को कदाच स्वतंत्र मान भी लिया जाए, तो फिर तो कार्य में कार्यता का व्याघात (दोष) उत्पन्न होगा। क्योंकि उत्पन्न होने वाला कोई कार्य यदि अपने कारणों से स्वतंत्र हो, तो कार्य को उत्पन्न करने वाले उपादान-कारण (पदार्थ) और निमित्त कारणरूप सहकारी-कारणों के रहते हुए भी, कार्य के स्वयं स्वतंत्र होने से उसे उत्पन्न होना होगा, तो वह उत्पन्न होगा और यदि नहीं होना होगा, तो वह उत्पन्न नहीं होगा, ऐसा होना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं हैं, इसलिए कार्य अपने कारणों से स्वतंत्र नहीं है, कार्य को अपने उपादान
और निमित्त-कारणरूप सहकारी-कारणों की अपेक्षा रहती है, अतः, यह मानना उचित नहीं है कि पदार्थ समर्थ हो, तो भी अर्थक्रियाकारित्व घटित नहीं होता है और पदार्थ असमर्थ हो, तो भी अर्थक्रियाकारित्व घटित नहीं होता है।
अपने पक्ष के समर्थन में बौद्ध-दार्शनिक जैनों से कहते हैं कि आप (जैन) पदार्थ में नित्यता (धौव्यता) का जो गुण (धर्म) मानते हैं, आपके द्वारा मान्य वह नित्य-पदार्थ न तो क्रम से अर्थक्रिया करने में समर्थ है और न अक्रम से तथा पदार्थ युगपत्-रूप से, अर्थात् क्रम और अक्रम- दोनों से एक साथ अर्थक्रिया कर सकता है। युगपत रूप से अर्थक्रिया करने वाला पदार्थ तो संसार में है ही नहीं, वह तो आकाश-पुष्प के समान असत् है, इसलिए अक्षणिक अर्थात नित्य-पदार्थ क्रम से, अक्रम से और युगपत-रूप से, अर्थात् क्रम और अक्रम से एक ही साथ अर्थक्रिया करने वाला नहीं
5* रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 705 55 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 705
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