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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
स्वरूप-लाभ तो होने वाला नहीं है। तात्पर्य यह है कि जो पदार्थ प्रारंभ से ही अपने स्वरूप में स्थित हैं, उन्हें किसी अन्य सहकारी कारणों की आवश्यकता ही नहीं होती। 2. अब यदि दूसरे पक्ष पर विचार करें कि पदार्थ स्वयं ही अर्थक्रिया करने में समर्थ हैं, तो फिर उनको सहकारी-कारणों की ओर से सहकार (उपकार) की क्या आवश्यकता है ? पुनः, यदि पदार्थ स्वयं ही अर्थक्रिया करने में असमर्थ हैं, तो असमर्थ पदार्थ को भी सहकारी-कारणों के सहयोग की अपेक्षा क्यों रहेगी ? क्योंकि असमर्थ पदार्थ को हजार सहकारी-कारण मिलकर भी कार्य करने में समर्थ नहीं बना सकते। उदाहरणस्वरूप- यदि रेत में तेल नहीं है, तो बाह्य सहकारी-कारण घाणी आदि रेती में से तेल की प्राप्ति कैसे करा पाएंगे ? अतः, पदार्थ अर्थक्रिया करने में स्वयं समर्थ हो या असमर्थ- दोनों स्थितियों में सहकारी कारणों की आवश्यकता नहीं रहती है। तात्पर्य यह है कि पदार्थ जब स्वयं ही कार्य करने में समर्थ हैं, तो उनको सहकारी-कारणों से होने वाले उपकार अर्थात् सहयोग से क्या प्रयोजन ? अर्थात् अर्थक्रिया करने में समर्थ पदार्थ को उपकारी (सहयोगी) की कोई आवश्यकता नहीं रहती है। जो पदार्थ अर्थक्रिया करने में असमर्थ हैं, उनको भी सहकारी-कारणों के सहयोग या उपकार की कोई आवश्यकता नहीं रहती है। पुनः, बौद्ध कहते हैं कि यदि आप जैन तीसरा विकल्प यह मानते हैं कि कार्य करने के लिए सहयोग की अपेक्षा होती है, तो यह तीसरा पक्ष भी उचित नहीं है। जिस प्रकार पदार्थ को अर्थक्रिया करने में समर्थ होने या असमर्थ होने में सहकारी (उपकारी) कारणों की अपेक्षा नहीं रहती है, उसी प्रकार पदार्थ को अपना कार्य करने के लिए भी सहकारी-कारणों की कोई आवश्यकता नहीं रहती है, क्योंकि जो पदार्थ स्वयं ही कार्य करने में समर्थ हैं, उनको सहकारी-कारणों की अपेक्षा नहीं रहती है और जो पदार्थ कार्य करने में असमर्थ हैं, उनको भी सहकारी-कारणों की अपेक्षा नहीं रहती है, अर्थात् दोनों को सहकारी-कारणों की कोई आवश्यकता ही नहीं है।
पुनः, बौद्ध-दार्शनिक जैनों से कहते हैं कि यदि कदाचित् आप (जैन) यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि पदार्थ तो स्वयं ही सम्पूर्ण रूप से कार्य करने में समर्थ हैं, परन्तु कार्य (अर्थक्रिया) के अनेक कारणों के अधीन होने से सहकारी-कारणों की अपेक्षा रहती है, अर्थात् कार्य को उत्पन्न करने वाले अर्थक्रियाकारी पदार्थ को तो निमित्त (सहकारी) कारणों की अपेक्षा
53 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 704, 705
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