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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
सहकारी - कारणों के होने पर ही अर्थक्रिया करता है और अपेक्षणीय सहकारी - कारणों के न होने पर, अर्थात् उनके अभाव में अर्थक्रिया नहीं करता है ? यदि पदार्थ स्वभावतः अर्थक्रिया करने में समर्थ होते हैं, तो उन्हें वर्त्तमानकाल की तरह भूत और भविष्य - काल में भी अर्थक्रिया करना चाहिए | So
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जैन इसके उत्तर में जैन- दार्शनिक कहते हैं कि अर्थक्रिया करने में समर्थ होते हुए भी भूत और भविष्य में वैसा ही कार्य करने में जिन-जिन अपेक्षणीय सहकारी - कारणों का सान्निध्य नहीं मिल पाने से वे पदार्थ भूत और भविष्य में वैसा ही कार्य करने में समर्थ नहीं होते है - ऐसा हम जैनों का मंतव्य है, 1 तो खण्डन करते हुए बौद्ध - दार्शनिक कहते हैं कि अर्थक्रिया करने में जब पदार्थ स्वयं ही समर्थ हैं, तो फिर उन पदार्थों को सहकारी - कारणों की अपेक्षा क्यों चाहिए ?
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1. क्या पदार्थ को स्वयं के स्वरूप की प्राप्ति करने के लिए सहकारी - कारणों के सहयोग की अपेक्षा होती है ? या 2. कोई उपकार करने के लिए सहकारी - कारणों के सहयोग की अपेक्षा रहती है ? या 3. वह कार्य करने के लिए सहकारी - कारणों के सहयोग की अपेक्षा रहती है? इन तीनों में से आप कौनसे पक्ष को मान्य करेंगे ? जिस किसी भी पक्ष को आप (जैन) स्वीकार करेंगे, वह दोषपूर्ण ही होगा। 2
बौद्ध - बौद्ध कहते हैं कि यदि आप प्रथम-पक्ष को मान्य करते हैं कि पदार्थ को स्वयं के स्वरूप की प्राप्ति में सहकारी - कारणों के सहयोग की अपेक्षा है, तो स्वयं के स्वरूप की उत्पत्ति में भी सहकारी-कारणों के अधीन होने से नित्य-पदार्थ नित्य-स्वरूप वाला न होकर अनित्य-स्वरूप वाला हो जाएगा, क्योंकि नित्य-पदार्थ तो जैसा होता है, वह वैसा ही प्रारंभ से ही रहता है। ऐसे नित्य-पदार्थ को सहकारी - कारणों के सहयोग से कौनसे स्वरूप का लाभ होगा ? यदि इन सहकारी - कारणों से नए-नए स्वरूपों का लाभ होता हो, तो वे पदार्थ नित्य-स्वरूप वाले तो रहेंगे ही नहीं, इसलिए जो नित्य-पदार्थ हैं, वे जिस स्वरूप में हैं, वे प्रारंभ से अन्त तक उसी स्वरूप में रहेंगे, उनको सहकारी - कारणों से कोई विशेष
50 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 703
51 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 704 52 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 704
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