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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा मानते हैं, पदार्थ में स्थायित्व-गण (द्रव्य) को स्वीकार नहीं करते हैं, अतः, ऊर्ध्वता-सामान्य बौद्धदर्शन को स्वीकार नहीं है।" बौद्ध- इस संबंध में बौद्ध-दार्शनिक जैनों के समक्ष यह आपत्ति उठाते हैं कि एक ही पदार्थ में त्रैकालिक-ध्रुवता मानने के सन्दर्भ में जन्म से बौद्ध-दार्शनिक जैनों से प्रश्न करते हैं- कोई भी एक पदार्थ दीर्घकाल पर्यन्त नित्य नहीं रहता है। प्रत्येक पदार्थ क्षणभंगुर है, अर्थात् क्षणिक है। उत्पाद और व्यय के स्वभाव वाले पदार्थ में नित्यता (धौव्यता) नाम का कोई लक्षण नहीं है। बदलती पर्याय में केवल द्रव्य का आभास होता है, उस आभास को ही आप (जैन) नित्यता मान लेते हैं, किन्तु आपकी यह मान्यता प्रमाणयुक्त नहीं है। प्रत्येक पदार्थ विनश्वर स्वभाव वाला, अर्थात प्रतिक्षण नष्ट होने से क्षणिक है। जो भी घट-पट आदि पदार्थ सत-रूप होते हैं, वे पदार्थ नियम से क्षणिक ही होते हैं तथा जो पदार्थ क्षणिक नहीं होते हैं, वे आकाश-पुष्प के समान सत् भी नहीं होते हैं। सत-पदार्थ में अर्थक्रियाकारित्व-गुण रहा हुआ है। जिसमें अर्थक्रिया करने का सामर्थ्य हो, वही सत् है। अर्थक्रियाकारित्व, अर्थात् सार्थक क्रिया का होना ही सत्ता का लक्षण है। शब्दादि धर्मी (पक्ष) में अर्थक्रियाकारित्व प्रत्यक्ष-प्रमाण से भी सिद्ध होता है। घट-पट आदि पदार्थ अपनी-अपनी क्रिया करने में समर्थ होते हैं, शब्द भी स्वतः ही अपनी ज्ञान-प्राप्ति की क्रिया में समर्थ होते हैं अर्थात् शब्द स्वयं ही अपने वाच्यार्थ का बोध कराने में समर्थ होते हैं। घट जलधारण की क्रिया में समर्थ होता है। पट शरीराच्छादन की क्रिया में समर्थ होता है। इन्हीं अर्थक्रियाओं के कारण ये सभी पदार्थ सत् और क्षणिक होते हैं। शब्द क्षणिक हैं - यह साध्य है, क्योंकि सत् है, यह उसका हेतु है। बौद्ध शब्दों को क्षणिक मानते हैं। उनके अनुसार, शब्द क्षणिक हैं (साध्य), क्योंकि वे सत् (हेतु) हैं। जो-जो सत् होता है, वह क्षणिक (व्याप्ति या दृष्टांत) होता है। चूंकि शब्द सत् हैं, इसलिए शब्द क्षणिक हैं (निगमन)। इस प्रकार, बौद्ध-दार्शनिक कहते हैं कि जो सत् होता है, वह क्षणिक होता है। यहाँ जैन-दार्शनिक बौद्धों से यह प्रश्न करते हैं कि आपने इस अनुमान में सत्वात्-यह हेतु दिया है। आपके अनुसार, सत्व उसे कहते हैं, जिसमें अर्थक्रियाकारित्व है, किन्तु अर्थक्रियाकारित्व तो नित्य में भी होता है और क्षणिक में भी है।" 43 रत्नाकरावतारिका भाग, II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 701 * रत्नाकरावतारिका भाग, II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 701, 702 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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