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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
त्रिकालवर्ती-द्रव्य को गौण करके मात्र पर्याय को ही प्रमुख मानता है, जबकि बौद्धदर्शन तो त्रैकालिक-सत्ता वाले द्रव्य का निषेध कर मात्र वर्तमानकालिक पर्याय, अर्थात् प्रतिक्षण विनाशशील सत्ता को मानता है, अतः, वह ऋजुसूत्र-नयाभास कहलाता है। बौद्ध-दार्शनिक गौणभाव और प्रधानभाव का अभाव करके एकान्त-वर्तमानकाल की पर्याय को ही मान्यता देकर त्रैकालिक-द्रव्य का एकान्त-निषेध (अपलाप) करते हैं, इसके कारण ये ऋजुसूत्र-नयाभास कहे जाते हैं।
जैनाचार्य रत्नप्रभसरि बौद्धों की मान्यता का कथन करते हए कहते हैं कि बौद्ध-दार्शनिक संसार की प्रत्येक वस्तु को क्षणिक मानते हैं। प्रत्येक वस्तु क्षण-क्षण परिवर्तनशील है। प्रत्येक पदार्थ पर्यायरूप में परिवर्तित होता रहता है, किन्तु त्रिकालवर्ती स्थिर-ध्रुव द्रव्य नाम का कोई तत्त्व ही नहीं है, पर्याय ही एकमात्र पारमार्थिक-तत्त्व है। वस्तुतः देखा जाए, तो द्रव्य प्रत्यभिज्ञा आदि प्रमाणों से ही प्रसिद्ध है। यदि नित्य-द्रव्यतत्त्व को न माना जाए, तो सोऽयं पुरुषः, अर्थात् यह वही पुरुष है, इत्यादि पूर्वापर-संकलना वाली प्रत्यभिज्ञा कैसे होगी ? भूतकाल की विषय-वस्तु का स्मरण भी कैसे होगा ? स्मरण के बिना अनुमान भी कैसे संभव होगा ? इत्यादि दोषों के कारण त्रैकालिक नित्य-द्रव्यतत्त्व को तो मानना होगा, किन्तु बौद्धदर्शन तो त्रिकालवर्ती नित्य-द्रव्यतत्त्व का पूर्णतया तिरस्कार करने के कारण ऋजुसूत्र–नयाभास ही है।
जो-जो दार्शनिक एकान्तवादी हैं, वे सभी एकान्त से विलक्षण अनेकान्तरूप अन्य पक्ष की अपेक्षा नहीं रखने के कारण और उसका अपलाप करने के कारण वे सभी नयाभास हैं, दुर्नय हैं, सुनय नहीं हैं, अतः, क्षणिकवादी बौद्ध भी ऋजुसूत्र-नयाभासरूप ही हैं।" बौद्धों के क्षणिकवाद की समीक्षा
रत्नाकरावतारिका में सामान्य के दो भेद किए गए हैं - 1. तिर्यक-सामान्य और 2. ऊर्ध्वता-सामान्य। तिर्यक-सामान्य का विश्लेषण हम पूर्व में कर चुके हैं। प्रति व्यक्ति में जो तुल्य परिणति होती है, उसे तिर्यक-सामान्य कहते हैं। पूर्व-पर्याय और उत्तरपर्याय में समान रूप से
39 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 183; 184 40 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि. पृ. 184 41 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 184
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