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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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यथार्थ-स्वरूप से अज्ञात होते हैं। अन्त में, यह भी बताया गया है कि जब वादी और प्रतिवादी विजय की इच्छा वाला हो, तब कितनी सीमा तक वाद करना चाहिए। ग्रन्थ के अन्त में प्रशस्ति के रूप में रत्नप्रभसूरि ने अपने गुरु की प्रशंसा करते हुए अपने को वादिदेवसूरि के शिष्य के रूप में प्रस्तुत किया है और ग्रन्थ के परिमाण को बताते हुए यह कहा है कि यह ग्रन्थ पाँच हजार श्लोक-परिमाण है तथा जो कोई भी इस ग्रन्थ का पठन-पाठन करेगा, वह बुद्धि की तेजस्विता को प्राप्त करेगा, ऐसा निर्देश किया है। उपसंहार
__ इस प्रकार, हम देखते हैं कि प्रस्तुत-कृति में विभिन्न भारतीय-दर्शनों की दार्शनिक अवधारणाओं का जहाँ भी जैन-दर्शन से मतभेद रहा है, वहाँ उनके पूर्वपक्ष को विस्तार के साथ उपस्थित करके उसकी समीक्षा की गई है। इस प्रकार, यह ग्रन्थ न केवल जैन-दर्शन के संबंध में हमें जानकारी प्रदान करता है, अपितु विविध भारतीयदार्शनिक-अवधारणाओं और दार्शनिक-मतों की भी समीक्षा करता है। प्रस्तुत कृति की यह विशेषता है कि इसमें अन्य दर्शनों के पूर्वपक्ष को स्थापित करते हुए पूरी प्रामाणिकता का ध्यान रखा गया है और उनके पूर्वपक्ष की स्थापना में संभावित और भी क्या तर्क हो सकते हैं, उन्हें भी विस्तारपूर्वक प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। इस प्रकार, यह ग्रन्थ न केवल जैन-न्याय-शास्त्र का, अपितु समग्र भारतीय-न्याय-शास्त्र का एक ग्रन्थ बन गया है।
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