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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
पश्चात्, बौद्धों के क्षणिक - आत्मवाद की समीक्षा करते हुए आत्मा की नित्यता को सिद्ध किया गया है । तदनन्तर आत्मा के गुणों का आत्मा के साथ तादात्म्य -- संबंध बताते हुए नैयायिकों के इस मत का खंडन किया गया है कि चेतना आत्मा का स्वरूप - लक्षण न होकर एक आगन्तुक गुण है और इसी आधार पर आगे नैयायिकों की मुक्ति की अवधारणा की भी समीक्षा की गई है। आत्मा के चैतन्यस्वरूप की इस चर्चा के पश्चात्, आत्मा परिणामी है, इस लक्षण की चर्चा करते हुए नैयायिक, वैशेषिक तथा सांख्यों की आत्मा की कूटस्थ - नित्यता की अवधारणा की समीक्षा करते हुए यह बताया है कि आत्मा नित्य न होकर परिणामी - नित्य है । इस संदर्भ में, सांख्यों के पूर्वपक्ष की विस्तार से समीक्षा करते हुए चर्चा की गई है और आत्मा में कर्तृत्व और भोक्तृत्व- गुण की पुष्टि की गई है। उसके पश्चात् नैयायिकों द्वारा मान्य आत्मा आकाश के समान सर्वव्यापी है, इस मत का खंडन करते हुए आत्मा को स्वदेह - परिणाम बताया गया है । अन्त में, प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न आत्मा है, इस मत की सिद्धि करते हुए आत्मा की अनेकता की स्थापना की गई है तथा नास्तिकों के मत का खण्डन करते हुए कर्मवाद की स्थापना की गई है। इस प्रकार, प्रस्तुत कृति में जैन - दर्शनसम्मत आत्मवाद की स्थापना करते हुए उनके विरोधी विविध दर्शनों की समीक्षा की गई है।
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इस प्रकरण के अन्त में, मोक्ष के स्वरूप की चर्चा करते हुए श्वेताम्बर - परंपरासम्मत स्त्री-मुक्ति की सिद्धि की गई है और इस संबंध में दिगम्बर - परंपरा के पूर्वपक्ष की विस्तार से समीक्षा की गई है।
8. ग्रन्थ के अष्टम परिच्छेद में न्याय दर्शन के वाद और वादी के स्वरूप की चर्चा की गई है और इसी प्रसंग में यह बताया गया है कि वादी दो प्रकार के होते हैं- एक, विजय की इच्छा वाले और दूसरे तत्त्व का निर्णय करने की इच्छा वाले । इसमें विजय की इच्छा करने वाले वादी को निम्न कोटि वाला बतलाया गया है । पुनः यह भी बताया है कि तत्त्व - निर्णय के इच्छुक वादी भी दो प्रकार के होते हैं। एक स्वयं के ज्ञान के लिए और दूसरे, दूसरों को विषय की स्पष्टता कराने के लिए । पुनः, दूसरों को तत्त्व का निर्णय कराने की दृष्टि से गुरु आदि वादी कहे गए हैं, वे भी दो प्रकार के कहे गए हैं- क्षायोपशमिक ज्ञान वाले और केवली । इसी प्रसंग में यह भी बताया गया है कि केवली विजय की इच्छा से, अर्थात् अपने लिए तत्त्व के स्वरूप के निर्णय हेतु वाद नहीं करते हैं, क्योंकि न तो उन्हें बाद में विजय की अपेक्षा होती है और न ही वे तत्त्व के
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