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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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व्यवहार। इन तीनों ही नयों का स्वरूप भी रत्नाकरावतारिका में विस्तारपूर्वक विश्लेषित किया गया है। इसी चर्चा में सामान्य और विशेष की चर्चा करते हुए उन्होंने सामान्य के भी दो भेद किए हैं- महासामान्य और अवान्तरसामान्य। इसमें भी, जो अवान्तर-सामान्य है, वह सामान्य-विशेषात्मक ही होता है। वह एक दृष्टि से सामान्य और दूसरी दृष्टि से विशेष कहा जा सकता है और इसी आधार पर उन्होंने यह भी बताया है कि संग्रहनय भी दो प्रकार का होता है- 1. अपर-संग्रहनय और 2. पर-संग्रहनय। इसके पश्चात्, इस कृति में यह बताया गया है कि अद्वैतवाद आदि संग्रहनय के आभासरूप दर्शन हैं। इसके पश्चात्, व्यवहारनय की चर्चा करते हुए व्यवहारनय के आभासरूप सांख्यदर्शन का ग्रहण किया गया है।
तदनन्तर, प्रस्तुत कृति में पर्यायार्थिकनय के ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत- ऐसे चार प्रकारों की चर्चा हुई है। इसी प्रसंग में, ऋजुसूत्रनय के आभास के रूप में बौद्धदर्शन का उल्लेख किया गया है। फिर; शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूतनय के स्वरूप की चर्चा करते हुए इन नयों के आभासों की भी चर्चा की गई है। विस्तारभय से यहाँ इस समग्र चर्चा में जाना हमें उचित नहीं लगता है। मात्र यह कह देना पर्याप्त होगा कि रत्नप्रभसूरि ने इस बात को मूल-सूत्रों के आधार पर बड़ी स्पष्टता से चित्रित किया है कि इन नयों के आभास अर्थात इन नयों के संबंध में भ्रांतियाँ किस प्रकार से होती हैं।
आगे नय-वाक्य एवं प्रमाण वाक्य की चर्चा करते हुए नय-वाक्य के रूप में सप्तभंगी-नय की विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है, जिसमें विधि, प्रतिषेध और अवक्तव्य के आधार पर उनके सांयोगिक-सप्तभंगी की चर्चा की है। अन्त में, प्रमाण के फल के समान ही नय के फल के साथ भी अनन्तर और परंपर शब्द आएगा या नहीं ? इसे व्याख्यायित किया गया है और इसके भिन्नाभिन्नत्व की चर्चा की गई है।
कृति के अन्त में, प्रमाता के रूप में आत्मा के स्वरूप की चर्चा मिलती है। इस चर्चा में आत्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए यह बताया गया है कि आत्मा चैतन्यस्वरूप कर्ता, भोक्ता, स्वदेह-परिमाण और प्रतिक्षेत्र भिन्न-भिन्न है। इस समग्र चर्चा में प्रस्तुत टीका में आत्मा के संबंध में चार्वाक-दर्शन की विस्तृत समीक्षा की गई है। चार्वाक के पूर्वपक्ष के स्थापन पर विस्तार से उन सभी पूर्वपक्षों का निरसन किया गया है, उसके
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