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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
अट्ठावन से अठहत्तर तक के सूत्रों में दृष्टांताभासों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है। उसके पश्चात् सूत्र क्रमांक इक्यासी में उपनयाभास की और बयासी में निगमनाभास की चर्चा की गई है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि रत्नाकरावतारिका के षष्ठ परिच्छेद में आभास की चर्चा ही मुख्य रूप से हुई है और इसके अन्त में यह बताया है कि प्रमाण से प्रमाण का फल भिन्न है, अथवा प्रमाण से प्रमाण का फल अभिन्न है- ये दोनों ही प्रमाण-भास हैं । इस प्रकार, हम देखते हैं कि षष्ठ परिच्छेद की टीका में रत्नप्रभसूरि ने एक ओर प्रमाण और प्रमाणफल की भिन्नाभिन्नता की तथा दूसरी ओर आभासों के विभिन्न रूपों की चर्चा की है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि इस षष्ठ प्रकरण में आभासों की जो चर्चा हुई है, उसमें रत्नप्रभसूरि ने हेत्वाभास की चर्चा अधिक विस्तार से की है तथा हेत्वाभास के संदर्भों में जैन-दर्शन का न्याय- - वैशेषिक एवं बौद्धदर्शन से किस प्रकार से मतभेद है, इसकी भी विस्तार से चर्चा की है।
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रत्नाकरावतारिका नामक टीका के सप्तम परिच्छेद में आचार्य रत्नप्रभसूरि ने मूल ग्रन्थ-प्रमाणनयतत्त्वालोक के आधार पर ही नयों के स्वरूप की विस्तृत विवेचना की है । जहाँ प्रारंभ के छह परिच्छेद प्रमाण संबंधी चर्चा से संबंधित रहे हैं, वहाँ यह सप्तम परिच्छेद नय की चर्चा से संबंधित है। इसमें सर्वप्रथम, नय और प्रमाण का अंतर स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि नय भी प्रमाण के समान स्व-पर-व्यवसायात्मक ही है । केवल दोनों में अंतर यह है कि प्रमाण समग्र रूप से वस्तु के स्वरूप का निश्चय करता है और नय वस्तु के एक अंश के स्वरूप का निश्चय करता है अतः, नय भी प्रमाणरूप ही है, वह अप्रमाण नहीं है। जिस प्रकार समुद्र का एक छोर भी समुद्ररूप ही है, उसी प्रकार से प्रमाण के अंश नय भी प्रमाणरूप ही हैं। इसी प्रसंग में आगे, रत्नप्रभसूरि ने नयाभास की चर्चा करते हुए यह कहा है कि स्वयं के द्वारा स्वीकृत अंश से भिन्न अन्य अंश का जो अपलाप करने वाला नय है, वह दुर्नय है और वह प्रमाणरूप नहीं
है ।
नयाभास की चर्चा के पश्चात् रत्नप्रभसूरि ने मूल ग्रन्थ के आधार पर ही नय के प्रकारों की चर्चा की है। उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि नय के प्रकारों की चर्चा दो प्रकार से की जा सकती है- एक संक्षिप्त रूप से और दूसरी विस्तृत रूप से । संक्षिप्त रूप में नय के दो प्रकारों की चर्चा है- द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय । आगे, उन्होंने द्रव्यार्थिकनय के तीन भेदों की विस्तार से चर्चा की है। ये तीन भेद हैं- नैगम, संग्रह और
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