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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
अभिन्न है, उसे किसी भी प्रकार से भिन्न नहीं माना जा सकता। इसी प्रसंग में, रत्नप्रभसूरि का कहना है कि यदि आप प्रमाण और प्रमाणफल में कथंचित्-भेद नहीं मानेंगे, तो फिर प्रमाण और प्रमाणफल की व्यवस्था ही नहीं रहेगी। इस प्रसंग में, रत्नप्रभसूरि ने बौद्धों के पूर्व-पक्ष को अनेक प्रकार से उठाकर उसकी समीक्षा की है। रत्नप्रभसूरि का कहना है कि प्रमाण से प्रमाणफल कथंचित्-भिन्न और कथंचित्-अभिन्न ही होता है, एकांत-भिन्न और एकान्त-अभिन्न नहीं माना जा सकता। इसके पश्चात्, उन्होंने नैयायिकों के प्रमाण और प्रमाणफल के एकान्त-अभिन्नता के सिद्धांत की समीक्षा की है तथा यह बताया है कि प्रमाता-आत्मा के स्व-पर-व्यवसायी-क्रियारूप प्रमाण का जो फल है, वह कथंचित्-भिन्न है, पूर्णतया भिन्न नहीं है, क्योंकि क्रिया और कर्ता- दोनों परस्पर-सापेक्ष होते हैं। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि इसी प्रसंग में रत्नप्रभसूरि ने बौद्धों के विज्ञानवाद और शून्यवाद की भी समीक्षा करते हुए यह सिद्ध किया है कि प्रमाण और प्रमाणफल कथंचित्-भिन्न और कथंचित् अभिन्न होते हैं। ऐसा नहीं है कि प्रमाण और प्रमाणफल का भेद केवल व्यवहार के स्तर पर है, वे प्रमाण और प्रमाणफल में पारमार्थिक और व्यावहारिक- दोनों ही दृष्टियों से विचार कर अपने पूर्व निर्दिष्ट प्रमाण और प्रमाणफल के भेदाभेदवाद की पुष्टि करते हैं।
इसके पश्चात्, रत्नाकरावतारिका में आभास की चर्चा करते हुए सर्वप्रथम प्रत्यक्षाभास की चर्चा की गई है। इस चर्चा में रत्नप्रभसूरि ने व्यवहारिक-प्रत्यक्षाभास और पारमार्थिक-प्रत्यक्षाभास- ऐसे प्रत्यक्षाभास के दो रूपों की चर्चा की है और यह बताया है कि जो पारमार्थिक-प्रत्यक्ष जैसा दिखाई देता है वह पारमार्थिक-प्रत्यक्षाभास है। इसमें विभंगज्ञान को पारमार्थिक-प्रत्यक्षाभास का ही एक रूप बताया है। पारमार्थिक-प्रत्यक्षाभास के उदाहरण के रूप में शिवराजर्षि की सप्तद्वीप समुदघात का उदाहरण दिया गया है। यहाँ यह भी बताया गया है पारमार्थिक-प्रत्यक्षाभास केवल अवधिज्ञान के संदर्भ में ही होता है, किन्तु मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान में पारमार्थिक-प्रत्यक्षाभास नहीं होता है।
इसके पश्चात्, रत्नाकरावतारिका में प्रमाण के अन्य प्रकारों, यथास्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क (ऊह), अनुमान-संबंधी आभासों की चर्चा की गई है। इस चर्चा में मुख्य रूप से रत्नप्रभसूरि ने अनुमानाभास की विस्तृत चर्चा की है और उसमें षष्ठ परिच्छेद के सूत्र अड़तीस से लेकर छियालीस तक पक्षाभास की, सूत्र सैंतालीस से लेकर सत्तावन तक में हेत्वाभास की,
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