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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
मनुष्य और पशु में कोई भेद ही नहीं रहेगा। इसी प्रकार, यहाँ रत्नप्रभसूरि ने नैयायिकों द्वारा प्रस्तुत अभाव की भी सापेक्षिक-रूप से आवश्यकता स्वीकार की है। यही कारण है कि जैन-दार्शनिकों ने पदार्थों को स्वगुण-धर्मों की अपेक्षा से सद्भावरूप और परगुणधर्मों की अपेक्षा से अभावरूप माना है। 6. रत्नाकरावतारिका के प्रथम परिच्छेद में प्रमाण-लक्षण का दूसरे, तीसरे और चौथे परिच्छेद में प्रमाणों के प्रकारों एवं उनकी संख्या के विषय में चर्चा करने के पश्चात् पाँचवें परिच्छेद में प्रमाण के विषय का उल्लेख किया है, साथ ही इस सम्बन्ध से इतर दर्शनों की मान्यताओं की समीक्षा की गई है। छठवें परिच्छेद में प्रमाणफल के सम्बन्ध में विचार किया गया है। यहाँ यह बताया गया है कि प्रमाण का कार्य अज्ञान की निवृत्तिरूप होता है। पुनः, यह भी दो प्रकार का होता है- अनन्तर और परम्परा-अज्ञानता का नाश एवं यथार्थ-बोध की उत्पत्तिरूप भति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल- ये पाँचों ज्ञान प्रमाण होते हैं। इनमें से कोई-सा भी ज्ञान होने पर तत्सम्बन्धी अज्ञान चला जाता है और जो वस्तुतत्त्व का यथार्थ-बोध होता है, उसी को प्रमाण का 'अनन्तर फल कहा गया है। अज्ञानता की निवृत्ति ही प्रमाण का अनन्तर-फल है। उसी प्रकार, तीनों काल के समस्त पदार्थों को प्रत्यक्षरूप से जानने रूप केवलज्ञान को प्रमाण का पारंपरीय-फल मानें, तो सम्पूर्ण अज्ञान के निवृतिरूप केवलज्ञान को और उसके परिणामस्वरूप होने वाली उदासीनता या तटस्थ-वृत्ति को भी प्रमाण का पारम्परीय-फल माना जा सकता है। केवलज्ञान के अतिरिक्त अन्य ज्ञानों से होने वाले प्रमाण के फल को औत्पातिक-बुद्धि, हीन-बुद्धि और उपेक्षा-बुद्धि बताया गया है। दूसरे शब्दों में, इसे हम उपादेय, हेय और ज्ञेय-रूप बुद्धि भी कह सकते हैं, अर्थात् कौन-सी वस्तु स्वीकार करने योग्य है, कौन-सी वस्तु त्यागने योग्य है और कौन-सी वस्तु के प्रति तटस्थता-बुद्धि रखना चाहिए, यह बतलाया गया है। इसी क्रम में आगे, रत्नप्रभसूरि ने इसकी चर्चा करते हुए यह कहा है कि यदि इससे भिन्न प्रमाणफल की यदि कोई चर्चा की जाती है, तो वह उचित नहीं है। उन्होंने इस सम्बन्ध में यह बताया है कि प्रमाण और प्रमाणफल कथंचित-अभिन्न हैं और कथंचित-भिन्न हैं। इसी प्रसंग में, उन्होंने प्रमाण और प्रमाणफल को एकान्तरूप से भिन्न मानने वाले नैयायिकों की और एकान्तरूप से अभिन्न मानने वाले बौद्धों की समीक्षा की है। बौद्धों का कहना है कि यदि अज्ञाननिवृत्तिरूप प्रमाण-फल प्रमाण के साथ ही प्रकट होता है, तो वह
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