SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा गई है। पुनः, रत्नप्रभ द्वारा क्रम-अक्रम और क्रमाक्रम किसे कहा जाता है, इसकी चर्चा के उपरांत बौद्ध-मत की समीक्षा में बौद्धों के एकांत-क्षणिकवाद में न तो देशक्रम और न ही कालक्रम संभव हो सकने की चर्चा की गई है तथा साथ ही रत्नप्रभ द्वारा यह प्रश्न उठाए जाने की चर्चा की गई है कि किसी एक देश अथवा काल में रहा हुआ पदार्थ एक क्रिया करके नष्ट हो गया हो, तो पुनः उसी देश और काल में कौनसी क्रिया करेगा ? अर्थात् बौद्धों के एकांत-क्षणिकवाद में क्रम नहीं बनता तथा अक्रम भी नहीं बनता एवं योगपद अर्थात् क्रमाक्रम भी संभव नहीं माना गया है। इसके पश्चात्, रत्नप्रभ द्वारा बौद्धों से यह प्रश्न उठाए जाने की चर्चा है कि पदार्थ, पदार्थ का आकार और उसका ज्ञान- ये तीनों एक ही समय में कैसे संभव होंगे ? अर्थात् 'रूपक्षण और 'ज्ञानक्षण का स्वभाव एक ही है या भिन्न-भिन्न है ? रत्नप्रभ द्वारा बौद्धों के विरोध में यह भी चर्चा की गई है कि पदार्थ क्षणिक और अनंश-स्वरूप वाला नहीं हो सकता। इस पर बौद्धों द्वारा यह चर्चा की गई है कि निमित्तकारणभूत सामग्री से भी भिन्न-भिन्न अर्थक्रिया के कार्य होते हैं, अर्थात् निमित्त-भेद से अनेक कार्य होते हैं, अतः, ऐसा भिन्न-भिन्न कथन करने में कौन-सी बाधा उत्पन्न होती है ? बौद्धों के विपक्ष में रत्नप्रभसूरि द्वारा पदार्थ को सापेक्षिक रूप से अक्षणिक (नित्य) एवं एक-स्वभाव वाला माने जाने की चर्चा करते हुए बौद्धों पर यह आक्षेप लगाया गया है कि उन्होंने पदार्थ को नित्य मानने वाले सांख्य-मत को भी सदोष बता दिया है, जबकि सांख्य भी प्रकृति को एकनित्य एवं परिणामी मानते हैं एवं एक ही प्रकृति को सामग्री-भेद से भिन्न कार्य करने वाली मानते हैं, अतः, बौद्धों के क्षणिकवाद में क्रम या अक्रम से होने वाली अर्थक्रिया संभव नहीं होने से आपका 'सत्व-हेतु विरुद्धहेत्वाभास से युक्त सिद्ध होता है। पुनः, रत्नप्रभ द्वारा पदार्थ को सर्वथा निरपेक्ष होकर उत्पन्न नहीं होने की चर्चा की है। उसमें कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में सापेक्षता माने जाने की चर्चा की है। इसके विरोध में बौद्धों द्वारा पुनः क्षणक्षयी-पदार्थ निरपेक्ष ही होने की चर्चा की है। उनके द्वारा किसी भी विनाशक-सामग्री की अपेक्षा नहीं माने जाने की चर्चा की है। पुनः, बौद्धों पर रत्नप्रभ ने आपत्ति उठाते हुए उनके मत की समीक्षा करते हुए यह चर्चा प्रस्तुत की है कि बौद्धों का हेतु-पक्ष में, अर्थात् वस्तु के विनाशशील स्वभाव या क्षणिक-एकांत में नहीं हो सकता, अतः, बौद्धों का हेतु असिद्धहेत्वाभास नामक दोष से ग्रसित हैं। अपने मत की पुष्टि करते हुए बौद्ध-दार्शनिक उनके द्वारा दिए गए हेतु को असिद्धहेत्वाभास न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy