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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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द्रव्य में ही पर्याय को मानना होगा, अर्थात् द्रव्य को कृतक मानना होगा, अतः, द्रव्य (पदार्थ) कृतक होने के कारण द्रव्य या पदार्थ के क्षणिक माने जाने की चर्चा की गई है। तीसरे, पर्याय-शक्ति को द्रव्य से "भिन्नाभिन्न माने तो यह भी उचित नहीं है, ऐसी भी चर्चा बौद्धों द्वारा की गई है तथा यह प्रश्न उठाए जाने की भी चर्चा है कि वस्तुतः आपके (जैन-मत के) सिद्धान्तानुसार पर्याय-शक्ति क्या है ? बौद्धों द्वारा रत्नप्रभ के समक्ष विरोध में तीन प्रश्न उठाए जाने पर कि 1. पर्याय-शक्ति द्रव्य से भिन्न है ? या 2. अभिन्न है ? या 3. भिन्नाभिन्न है ? इसकी समीक्षा में रत्नप्रभ द्वारा अन्तिम भिन्नाभिन्न पक्ष को स्वीकारने की चर्चा है, जिसमें किसी भी प्रकार के दोष की संभावना नहीं है। रत्नप्रभ ने पुनः यह चर्चा भी की है कि हम तो द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से पदार्थ को नित्य भी मानते हैं तथा पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से अनित्य भी मानते हैं। यहाँ पर बौद्धों के एकान्त-क्षणिकवाद के खण्डन की चर्चा मिलती है। रत्नप्रभ कथंचित्-क्षणिकत्व को तो मानते ही हैं, इस पर बौद्धों द्वारा यह चर्चा की गई है कि प्रतिक्षण बदलने वाली पर्याय तो क्षणिक ही होगी। इस प्रकार,, कथंचित्-क्षणिक नहीं माने जाने की चर्चा की गई है और द्रव्य तथा पर्याय में विरोध होने से तो एक ही स्थान में एक साथ नहीं रह सकने की भी चर्चा की गई है। जैन-दार्शनिक रत्नप्रभ द्वारा पर्याय को भी द्रव्य से कथंचित्-भिन्न और कथंचित्-अभिन्न, अर्थात् उभयात्मक माने जाने की चर्चा की गई है। रत्नप्रभ द्वारा बौद्धों की समीक्षा करते हुए, प्रत्येक द्रव्य को पर्याय की अपेक्षा से भेदरूप और द्रव्य की अपेक्षा से अभेदरूप माने जाने की तथा अपेक्षा-भेद से विधि और निषेध (प्रयोग-अप्रयोग) करने पर कोई विरोध उत्पन्न नहीं होने की चर्चा को एक उदाहरण के माध्यम से समझाया गया है। इसके पश्चात्, भेद का कथन किस प्रकार किया जाता है और अभेद का कथन किस प्रकार किया जाता है, इसकी चर्चा की गई है। रत्नप्रभ द्वारा बौद्धों पर आक्षेप लगाए जाने की चर्चा में, यह उल्लेख करते हुए कि बौद्ध-दार्शनिकों द्वारा एक ही विज्ञानक्षण को सविकल्पक और निर्विकल्पक, भ्रान्त और अभ्रान्त, पूर्वक्षण की अपेक्षा से कार्यरूप और उत्तरक्षण की अपेक्षा से कारणरूप मानकर, परस्पर-विरोधी उभयात्मक स्वरूप को स्वयं बौद्धों द्वारा स्वीकार किए जाने की चर्चा की गई है, किन्तु बौद्धों द्वारा माने गए भेदाभेद में परस्पर विरोध कहकर दोष दिखाए जाने की चर्चा भी की गई है। इसके साथ ही, रत्नप्रभ द्वारा बौद्धों के अर्थक्रियाकारी-सिद्धांत में संदिग्धानेकान्तिक-दोष सिद्ध होने की चर्चा की
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