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________________ 70 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा पदार्थ के क्रमाक्रम से अर्थक्रिया करने वाला तथा नित्यानित्य ही माने जाने की चर्चा के साथ ही एकान्तरूप से पदार्थ को क्षणिक माने जाने की बौद्धों की अवधारणा की समीक्षा किए जाने की चर्चा की गई है। इसके विपक्ष में बौद्धों द्वारा जब सम्पूर्णरूपेण कारण के समर्थ होते हुए भी, अर्थात् जब कारण से कार्य उत्पन्न होता है, तो फिर कार्य के उत्पन्न होने में विलम्ब क्यों बनता है, जैसे- अंकुर के उत्पन्न होने में विलम्ब क्यों होता है ? इस पर जैनों के समक्ष तर्क उठाए जाने की चर्चा की गई है। रत्नप्रभ द्वारा इस समाधान के रूप में कोई भी पदार्थ बिना विलंब के तत्काल ही कार्य के रूप में उत्पन्न हो जाए- ऐसा एकान्त-सिद्धान्त जैनों द्वारा नहीं माने जाने की चर्चा की गई है। प्रत्येक पदार्थ में द्रव्य और पर्याय उभयात्मक-धर्म रहे हुए हैं, अतः, नवीन पर्याय के उत्पन्न होने में सहकारी-निमित्त-कारणों के होने से ही पर्याय नवीन रूप में प्रकट होने की स्थिति बनने की चर्चा की गई है। जिस पदार्थ में उत्पन्न होने (उगने) की शक्ति नष्ट हो चुकी हो, उसे सहकारी-कारणों के मिलने पर भी उत्पन्न नहीं होने की चर्चा की गई है, साथ ही द्रव्य में उत्पन्न होने और नहीं होने, अर्थात् अक्षेपक्रिया, क्षेपक्रिया (विलंब, अविलंब) उभयात्मक स्वभाव वाला बताए जाने की चर्चा की गई है। इसके पश्चात्, बौद्धों द्वारा जैनों के समक्ष यह प्रश्न उठाए जाने की चर्चा है- आपके अनुसार क्या द्रव्य में रही हुई पर्याय-शक्ति द्रव्य से 1. भिन्न है ? या 2. अभिन्न है ? या 3. भिन्नाभिन्न है ? पुनः, जब सहकारी कारण से ही द्रव्य का उत्पन्न होना माना जाए, तो पर्याय-शक्ति को मानने की क्या आवश्यकता है तथा सहकारी-कारणों को ही कार्य का हेतु मानने में क्या आपत्ति है ? ऐसी चर्चा के उपरान्त पुनः, यदि सहकारी-कारण द्रव्य से भिन्न हो, तो सहकारी कारण के मानने से कोई विशेष लाभ भी नहीं माने जाने की चर्चा है। अन्त में, बौद्ध चर्चा में लिखते हैं कि सहकारी कारणों के बिना भी द्रव्य (बीज) उत्पन्न हो सकता (उग सकता) हो, तीनों लोकों के समस्त पदार्थों को भी सहकारी-कारण बन जाना चाहिए और इसके साथ ही सहकारी-कारण से द्रव्य (बीज) के उगने की शक्ति को माने जाने की चर्चा की गई है। जैनों ने बौद्धों के विषय में यह चर्चा की है कि विशेष-सहकारी-कारण के होने पर ही द्रव्य (बीज) उत्पन्न हो सकता है, दूसरे, विशेष-सहकारी-कारण भी विशेषता के अभाव में सहयोगी कैसे बनेगा ? अर्थात्, नहीं बनेगा। इस पर, बौद्ध-दार्शनिक जैनमत की समीक्षा करते हुए उल्लेख करते हैं कि पर्याय-शक्ति को द्रव्य से भिन्न मानने पर उसमें दोष उत्पन्न होगा। दूसरे, अभिन्न मानने पर तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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