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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
जैन-मत की समीक्षा में अपने पक्ष के समर्थन में, नित्य-पदार्थ न तो क्रम से, न अक्रम से, न युगपत् से अर्थक्रिया करने में समर्थ है, अतः, पदार्थ सत्व - लक्षण से युक्त होने से वे क्षणिक अर्थात् परिवर्तनशील माने जाने की चर्चा की गई है। अंत में, बौद्ध- दार्शनिक रत्नप्रभ के समक्ष अपने पक्ष के समर्थन में अपने मत को मानने के पक्ष में आग्रह किए जाने की चर्चा की गई है। बौद्धों द्वारा उठाए गए समस्त तर्कों का खण्डन करते हुए रत्नप्रभ द्वारा चर्चा की गई है कि प्रतिक्षण नष्ट होने वाला पदार्थ प्रत्यक्ष - प्रमाण का विषय नहीं बन सकता, क्योंकि अर्थक्रियाकारित्व का यथार्थ-बोध कारण और कार्य- दोनों से न होकर उभयग्राही ज्ञान से ही माना जाए। बौद्धों द्वारा पुनः कारण या कार्य में से किसी भी एक की सिद्धि से दोनों की सिद्धि हो जाने की चर्चा की गई है। रत्नप्रभ द्वारा कारण या कार्य में से किसी एक के प्रत्यक्ष - ज्ञान से ही सत् के अर्थक्रियाकारित्व का ज्ञान संभव नहीं माने जाने की चर्चा की गई है, साथ ही कारण-कार्य का युगपत् ज्ञान भी बौद्धों द्वारा क्षणिक होने से प्रत्यक्ष का विषय नहीं माने जाने की चर्चा की गई है। बौद्ध स्वपक्ष के संबंध में, कारण या कार्य, किसी भी एक प्रकार के प्रत्यक्ष से मानसिक - विकल्प के उत्पन्न होने से अर्थक्रियाकारित्व के निर्णय हो जाने की चर्चा की है, अर्थात् पूर्वकाल के प्रत्यक्ष के उत्तरकाल के उसी प्रत्यक्ष से ( विचार - विशेष से ) अर्थक्रियाकारित्व के निर्णय की चर्चा की है। इस पर, रत्नप्रभसूरि बौद्धमत की समीक्षा में- पदार्थ का जो प्रत्यक्ष - ज्ञान हुआ, वह कारण का, या कार्य का, या कारण और कार्यदोनों का हुआ ? इस प्रकार प्रश्न उठाए जाने की चर्चा के उपरान्त रत्नप्रभ द्वारा अपने मत की पुष्टि में न तो कार्य या कारण में से किसी एक के ग्राही विकल्प से ही अर्थक्रियाकारित्व का निश्चय होता है, न किसी एक ग्राही विकल्प से ही अर्थक्रियाकारित्व का निश्चय होता है, अपितु उभयग्राही प्रत्यक्ष से ही अर्थक्रियाकारित्व के निश्चय हो जाने की चर्चा की गई है। बौद्धों द्वारा अनेकान्तिक- हेत्वाभास के दो भेद बताए जाने की चर्चा है। ये भेद हैं- 1. संदिग्धानेकान्तिक- हेत्वाभास और 2. निश्चितानेकान्तिकहेत्वाभास | इस हेत्वाभास की सिद्धि के लिए बौद्धों द्वारा यह प्रश्न उठाए जाने की चर्चा रत्नप्रभ ने की है, साथ ही क्षणिक वस्तु में क्रमाक्रम नामक उपालंभ की चर्चा की गई है। रत्नप्रभ द्वारा बौद्धों की समीक्षा में यह चर्चा की गई है कि एक कार्य सम्पन्न करके दूसरा कार्य करना ही क्रम है। एकान्त-क्षणिकवाद में तो क्रम नहीं बनने की चर्चा है, किन्तु क्षणिकाक्षणिक में तो क्रम के बनने की चर्चा की है । पुनः रत्नप्रभ द्वारा बौद्धों को तो
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