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________________ 68 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा चर्चा है, क्योंकि उनके द्वारा उत्पाद और व्यय को ही माने जाने की चर्चा की गई है। तात्पर्य यह है कि बौद्धों द्वारा पदार्थ में स्थायित्व-गुण (द्रव्य) को स्वीकार नहीं किए जाने की चर्चा है, अतः, ऊर्ध्वतासामान्य बौद्धदर्शन द्वारा स्वीकार्य नहीं है। पूर्वपक्ष के रूप में बौद्ध-दार्शनिक द्वारा रत्नप्रभ के समक्ष अपने पक्ष की पुष्टि किए जाने की चर्चा है कि प्रत्येक पदार्थ क्षणिक है तथा क्षणिक पदार्थ सत् भी होते हैं और उनमें अर्थक्रियाकारित्व का गुण भी माने जाने की चर्चा के साथ ही बौद्धों द्वारा शब्द को भी क्षणिक माने जाने की चर्चा की गई है। पुनः, बौद्ध अपने मत की पुष्टि में यह चर्चा करते हैं कि अर्थक्रिया का होना ही सत्ता का स्वलक्षण है और वही पदार्थ की सत्ता है। रत्नप्रभ द्वारा बौद्धों की समीक्षा में यह चर्चा की गई है कि आय बौद्धों का अर्थक्रियाकारित्वरूप जो हेतु है, वह तो अनेकान्तिकहेत्वाभास से युक्त है, क्योंकि अर्थक्रियाकारित्व तो नित्य-पदार्थों में एवं अनित्य-पदार्थों में (क्षणिक) भी होता है। पुनः, बौद्धों से रत्नप्रभ द्वारा यह प्रश्न उठाए जाने की चर्चा है कि जिसे आप बौद्ध अर्थक्रिया कहते हैं, वह अर्थक्रिया क्रम से होती है ? या अक्रम से होती है ? या क्रमाक्रम से होती है ? इसकी संक्षिप्त व्याख्या करते हुए रत्नप्रभ द्वारा यह चर्चा है कि तीनों कालों में क्षणिक पदार्थ अर्थक्रिया करने में समर्थ नहीं होता है। नित्य-पदार्थ ही तीनों कालों में अर्थक्रिया करने में समर्थ होता है। जैनमत का खण्डन करते हुए बौद्धों द्वारा रत्नप्रभ के समक्ष यह प्रश्न उठाए जाने का उल्लेख है कि पदार्थ अपेक्षित सहकारी-कारणों के होने पर ही अर्थक्रिया करता है ? या अपेक्षित सहकारी-कारणों के न होने पर अर्थक्रिया नहीं करता है ? पुनः, बौद्धों द्वारा प्रश्न उठाए जाने की चर्चा की है कि क्या आप जैन 1. पदार्थ को स्वयं के स्वरूप की प्राप्ति करने के लिए सहकारी-कारणों के सहयोग की अपेक्षा मानते हैं? या 2. कोई उपकार करने के लिए सहकारी-कारणों की अपेक्षा मानते हैं ? या 3. कार्य करने के लिए सहकारी-कारणों के सहयोग की अपेक्षा मानते हैं ? इस प्रकार, बौद्ध अपने मत की पुष्टि में रत्नप्रभ के समक्ष यह चर्चा करते हैं कि पदार्थ चाहे कार्य करने में समर्थ हो या न भी हो- दोनों अवस्थाओं में सहकारी-कारणों की आवश्यकता नहीं रहती है। पुनः, बौद्धों द्वारा जैन-मत के विरोध में रत्नप्रभ के समक्ष यह चर्चा की गई है कि पदार्थ को अर्थक्रिया में निमित्तकारण या उपादानकारणरूप सहकारी-कारणों को मानने की आवश्यकता नहीं है। पदार्थ से उत्पन्न होने वाला कार्य तो परतंत्र है, स्वतंत्र नहीं है। इसके उपरान्त पुनः, बौद्ध-दार्शनिक द्वारा रत्नप्रभ के समक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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