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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
मानसिक-संकल्पना का आधार तो सत्तात्मक-पदार्थ ही है। यहाँ रत्नप्रभ द्वारा बाह्यार्थ को स्वीकार किए जाने की चर्चा है। वासनाजन्य-ज्ञान में भी कहीं न कहीं बाह्यार्थ का यथार्थ बोध होता है। तत्पश्चात्, यदि अनुगताकारता (सामान्य) का बोध वासनाजन्य ही है, तो रत्नप्रभ द्वारा खण्डन किया गया है कि क्या यह वासना किसी पदार्थ को विषय बनाकर तथाभूत-प्रत्यय को उत्पन्न करती है ? किंवा निमित्तकारण से तथाभूत-प्रत्यय को उत्पन्न करती है ? रत्नप्रभ द्वारा की गई समीक्षा में यह चर्चा है कि वासना और सामान्य में कोई अन्तर नहीं है। चूंकि पदार्थ में रहा हुआ सामान्य ही तथाभूत-ज्ञान को उत्पन्न करता है, अतः, बाह्यार्थ को स्वीकार किए बिना कोई भी पदार्थ वासनाजन्य नहीं हो सकता, इसलिए वासना सामान्य से पृथक् नहीं होने से आप बौद्धों को सामान्य की सत्ता स्वीकार किए जाने की चर्चा की गई है। पुनः, निमित्त कारण से भी तथाभूत-प्रत्यय उत्पन्न नहीं होने की चर्चा की गई है। पुनः, रत्नप्रभ द्वारा बौद्धमत के अनुसार अन्य की व्यावृत्ति असमान आकार वाले पदार्थ में होने से विशेष बन जाएगी तथा समान आकार वाले में होने से सामान्य हो जाएगी, अतः, सदृशपरिणामत्वरूप् सामान्य को तो स्वीकार करना ही होगा, इसकी चर्चा की गई है। पुनः, रत्नप्रभ द्वारा प्रत्यासत्ति-संबंध की समीक्षा में उल्लेख किया गया है कि आप बौद्धों का जो मंतव्य है कि जिस प्रत्यासत्ति-संबंध से सदृश-परिणाम का बोध होता है, उसी प्रकार विसदृशता का भी बोध होता है, चाहे समान आकार वाले हों या असमान-आकार वाले, सभी पदार्थों में सदृशपरिणामता का बोध होता है। फलतः, बौद्धों द्वारा संसार की प्रत्येक वस्तु, चाहे वह जड़ हो, चाहे वह चेतन, सभी में एकरूपता माने जाने की चर्चा की गई है। रत्नप्रभ बौद्धों के विरोध में समीक्षा करते हैं कि प्रत्यासत्ति-संबंध में तो सदृशता एवं विसदशता- दोनों धर्म माने जाने की चर्चा की गई है, वरना न तो आपके मत की सिद्धि होती है, न ही जैनमत की, अपितु एक तीसरे ही मत अद्वैतवाद की पुष्टि होती है, क्योंकि अद्वैतवाद के अनुसार संसार की प्रत्येक वस्तु, चाहे वह जड़ हो, चाहे चेतन, सबको ब्रह्मस्वरूप माने जाने की चर्चा की गई है, उनके अनुसार ब्रह्म ही सत् है, ब्रह्म के अतिरिक्त पदार्थ नाम की कोई वस्तु नहीं है, अतः, रत्नप्रभ द्वारा बौद्धों की यह मान्यता ब्रह्माद्वैतवादियों के पक्ष को ही सिद्ध करती है। रत्नप्रभ द्वारा बौद्धों को अद्वैतवादियों के समान बताए जाने पर बौद्ध-दार्शनिक द्वारा रत्नप्रभ पर यह आक्रोश व्यक्त किए जाने की चर्चा है कि आपके द्वारा हमारे मत
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