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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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आधार पर रत्नप्रभ ने विविध तर्कों के माध्यम से नैयायिक मत की विस्तृत रूप में चर्चा की है। जैन-दर्शन के अनुसार, वस्तु सामान्य, विशेष आदि अनेक धर्मों का समूह मानने की चर्चा के साथ ही रत्नप्रभ द्वारा सामान्य और विशेष- दोनों को स्वीकारने की चर्चा की गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ में सामान्य को दो प्रकार से प्ररूपित किया गया है - 1. तिर्यक- सामान्य और 2. ऊर्ध्वता-सामान्य, अर्थात् अनुवृत्ताकार-तिर्यक-सामान्य और अनुगताकार-ऊर्ध्वतासामान्य। तत्पश्चात्, पूर्वपक्ष के रूप में बौद्ध-दार्शनिक धर्मोत्तर रत्नप्रभ के समक्ष अपने मत की चर्चा में कहते हैं कि अनुगताकार (सदशाकार) का जो बोध होता है, वह बोध सामान्य का बोध नहीं, अपित अन्यव्यावृत्ति मानने की चर्चा है। सदृश-परिणाम को दर्शानेवाली सामान्य नाम की कोई वस्तु नहीं हैं। अन्य की व्यावृत्ति करना ही सामान्य है। पुनः, बौद्ध-दार्शनिक अनुगताकारता का बोध अन्य-व्यावृत्ति आदि किसी भी कारण से न होकर मात्र वासना (संस्कार) से, अर्थात् मानसिक-संकल्पना से हो जाने की चर्चा के साथ बाह्यार्थ की सत्ता को भी नहीं मानते हैं। तथाभूत-प्रत्यय वासना का ज्ञान कराता है। निमित्त-कारण के द्वारा वासना तथाभूत-प्रत्यय को उत्पन्न करती है। पुनः, बौद्धों द्वारा यह भी चर्चा मिलती है कि चाहे समान आकार वाले हों, चाहे असमान आकार वाले, सभी पदार्थों में प्रत्यासत्ति-संबंध होने के कारण सदृश-परिणामता का बोध होता है। उसी प्रत्यासत्ति-संबंध से विसदृशता का भी बोध होता है। रत्नप्रभ द्वारा बौद्धों पर आक्षेप उठाते हुए यह चर्चा की गई है यदि आप सामान्य को नहीं मानेंगे, तो सामान्य की व्यावृत्ति कैसे करेंगे ? अन्य की व्यावृत्ति तो हम जैन भी करते हैं। यदि आप व्यक्ति-विशेष में भिन्न-भिन्न व्यावृत्ति करेंगे, तो क्या वे व्यावृत्तियाँ एक हैं ? या अनेक हैं ? सबकी व्यावृत्तियाँ भिन्न-भिन्न होंगी? या अभिन्न होंगी ? आप बौद्ध तो व्यावृत्ति को अन्तरात्मक-व्यावृत्ति अन्तर्गत भी नहीं मानते हैं और बाह्यात्मक-व्यावृत्ति भी नहीं मानते हैं। पुनः, रत्नप्रभ द्वारा बौद्धों के विरुद्ध यह प्रश्न उठाया गया कि आप वस्तु के स्वरूप को निश्चित करने के लिए अन्य की व्यावृत्ति करते हैं, तो वह अन्य की व्यावृत्ति क्या है ? उसका आधार क्या है ? क्या वह वस्तु है ? या अवस्तु है ? इनकी समीक्षा में रत्नप्रभ कहते हैं- आपने तो सामान्य की सत्ता को स्वीकार कर लिया है, क्योंकि वस्तु के स्वरूप में कथंचित-विधान भी है तथा कथंचित-निषेध भी है। पुनः, रत्नप्रभ समीक्षा करते हुए कहते हैं कि यदि आप अनुगताकारता के बोध को अन्य-व्यावृत्ति मानकर उसे मानसिक-संकल्पना (वासना) ही मानते हैं, किन्तु हमारी
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