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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
5. चतुर्थ परिच्छेद में प्रमाण का स्वरूप, प्रमाण की संख्या तथा तत्संबंधी प्रसंगानुसार अन्य दार्शनिक - मतों के अन्यान्य - संबंध की समीक्षा की विस्तृत चर्चा करने के उपरान्त प्रमाण से जानने योग्य जो ज्ञेय पदार्थ है, उस प्रमेय विषय की चर्चा पंचम परिच्छेद में रत्नप्रभ द्वारा की गई है। प्रथम सूत्र की व्याख्या में सर्वप्रथम यह चर्चा की गई है कि ज्ञेय-पदार्थ विषय कहलाता है और उस पदार्थ को बताने वाला जो ज्ञान है, वह विषयी कहलाता है । यहाँ यह प्रश्न उठाया गया है कि प्रमाणात्मक - ज्ञान का जो विषय है, वह विषय कैसा है ? कितने धर्मवाला है ? कौन - कौनसे धर्म वाला है ? वह धर्म परस्पर कैसा है ? इसके समाधान की चर्चा में यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रथम सूत्र में जो 'आदि' शब्द है, उस आदि शब्द से अस्ति- नास्ति, नित्य-अनित्य, भिन्न- अभिन्न, वाच्य - अवाच्य, अभिलाप्य – अनभिलाप्य, एक-अनेक, सत् - असत्, सामान्य - विशेष - इस प्रकार से वस्तु अनन्त - धर्मात्मक होती है और वह अनन्त-धर्मात्मक वस्तु (पदार्थ) ही ज्ञान का विषय (प्रमेय) बनता है । तत्पश्चात् ग्रन्थकर्त्ता सामान्य और विशेष - ऐसी उभयधर्मात्मक वस्तु को ज्ञान का विषय (प्रमेय) बताकर, केवल सामान्य धर्मवाली वस्तु ही प्रमेय है - ऐसा मानने वाले वेदान्त और मीमांसक - दर्शन (अद्वैतवाद) के खण्डन होने की चर्चा, मात्र विशेष धर्मवाली वस्तु ही प्रमेय है- ऐसा मानने वाले बौद्ध-दर्शन (क्षणिकवाद) के खण्डन की चर्चा तथा स्वतंत्र रूप से (एकान्त - भिन्नत्व) रहे हुए सामान्य और विशेष को मानने वाले नैयायिक और वैशेषिक (स्वतंत्र सामान्य - विशेषादिक) के भी खंडन की चर्चा है। ज्ञान का विषयभूत प्रत्येक पदार्थ सामान्य और विशेष- ऐसा उभयात्मक ही है, जिससे केवल - सामान्य, केवल - विशेष अथवा स्वतंत्र - उभयधर्म में प्रमाण का विषय भी स्वतः खण्डित हो जाने की चर्चा की गई है। नैयायिकों ने अपनी-अपनी विस्तृत व्याख्या में जैनदर्शन की समालोचना में यह चर्चा की है कि सामान्य और विशेष- सबकी अलग-अलग स्वतंत्र - सत्ता है। सामान्य सर्वगत है और विशेष व्यक्तिगत | सामान्य समष्टि में है तथा विशेष व्यष्टि में है। नैयायिक-मत की समीक्षा करते हुए रत्नप्रभ द्वारा यह चर्चा की गई है कि वस्तु सामान्य और विशेषात्मक- दोनों ही है। जो सामान्य है, वही विशेष है, जो विशेष है, वही सामान्य है। सामान्य और विशेष - दोनों ही वस्तु के गुण-धर्म हैं, अर्थात् वस्तु में परस्पर विरोधी गुणधर्म रहे हुए हैं, इसलिए वस्तु को अनेक धर्मों का समूह कहा गया है। जैसे आत्मा (नित्य) और शरीर (अनित्य)- ये परस्पर विरोधी होते हुए भी साथ-साथ रह सकते हैं, उसी प्रकार के
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