SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा की अपेक्षा से घट है। 2. स्यात् नास्ति घट-घट कथंचित् नहीं है, अर्थात् घट में स्वद्रव्यादि से नास्तित्व है। यहाँ निषेध की विवक्षा की गई है। द्वितीय भंग में अद्वैतवादी की ओर से शंका उठाकर उसकी समीक्षा रत्नप्रभ द्वारा की जाने की चर्चा की गई है। 3. स्यात् अस्ति नास्ति घट-घट स्वद्रव्य की अपेक्षा से भी घट है तथा परद्रव्य की अपेक्षा से भी घट है। 4. स्यात् अवक्तव्यो घट-घट कथंचित् अवक्तव्य है- घट के बारे में विधि और निषेध को एक साथ बताने के लिए कोई शब्द न होने से घट को अवक्तव्य कहा जाता है। 5. केवल विधि और निषेध, एक साथ विधि-निषेध की विवक्षा करने से घट है और अवक्तव्य है, यह पाँचवाँ भंग बनता है। 6. केवल निषेध और एक साथ विधि-निषेध, दोनों की विवक्षा से घट नहीं है और अवक्तव्य है, यह छठवां भंग है और 7. दोनों की एक साथ विधि-निषेध तथा दोनों की विवक्षा से घट नहीं हैं और अवक्तव्य है, यह सातवाँ भंग है। इस प्रकार, सर्वप्रथम सप्तभंगी के स्वरूप की संक्षिप्त चर्चा करने के पश्चात् सप्तभंगी के एकान्तवादियों का निरसन करने की चर्चा के पश्चात् यह भी वर्णन किया गया है कि शिष्य के हृदय में सात प्रकार की ही जिज्ञासा उत्पन्न होती है, अतः, भंग भी सात होते हैं तथा यह सप्तभंगी प्रत्येक भंग में दो प्रकार की होती है- 1. सकलादेश स्वभाववाली और 2. विकलादेश स्वभाववाली। सकलादेश के अंतर्गत काल आदि आठ भेद बताए गए हैं- 1. काल 2. आत्मरूप 3. अर्थ 4. संबंध 5. उपकार 6. गुणीदेश 7. संसर्ग और 8. शब्द । सकलादेश और विकलादेश की चर्चा में यह उल्लेख किया गया है कि सकलादेश वस्तु के अनन्तधर्मात्मक पक्ष को ग्रहण करता है, जबकि अनन्तधर्मात्मक-पक्ष में से किसी एक पक्ष को ग्रहण करना, अर्थात् एक पक्ष की चर्चा करना विकलादेश है। सकलादेश में द्रव्यार्थिक-नय की प्रधानता रहती है और विकलादेश में पर्यायार्थिक-नय की प्रधानता रहती है। इस प्रकार, इसकी विस्तृत चर्चा के उपरान्त चतुर्थ परिच्छेद के अन्तिम दो सूत्रों में प्रमाण के प्रतिनियत विषय की चर्चा करते हुए लिखा है कि प्रत्यक्ष और परोक्ष- दोनों प्रकार का प्रमाण अपना-अपना आवरण करने वाले कमों के क्षयोपशमरूप शक्ति से नियत-नियत पदार्थ को प्रकाशित करता है। प्रमाण वस्तु को दो के माध्यम से जानता है- 1. तदुत्पत्ति और 2. तदाकारता। रत्नप्रभसूरि द्वारा तदुत्पत्ति और तदाकारता के संबंध में अन्य दार्शनिक-मतों की समीक्षा की जाने की चर्चा की गई है। 36 देखें - प्रमाणनयतत्त्वालोक, चतुर्थ परिच्छेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy