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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
रत्नप्रभ ने नैयायिकों द्वारा मान्य अभाव की समीक्षा में चर्चा की है कि भाव और अभाव - दोनों सापेक्ष हैं। अभाव कोई पदार्थ नहीं है, अभाव की सत्ता सिर्फ भाव - सापेक्ष है। इस तरह, नैयायिकों ने अपना मत विस्तार से प्रस्तुत किया है, तो रत्नप्रभ ने भी विस्तार से खंडन किया है। नैयायिक के साथ शब्द - संबंधी चर्चा के उपरान्त रत्नाकरावतारिका में बौद्ध - दार्शनिक एवं जैन- दार्शनिक के मध्य चर्चा होती है, जिसमें बौद्ध अपने मत का प्रतिपादन करते हुए लिखते हैं कि शब्द सामान्य का वाचक नहीं हो सकता । शब्द में वाचक का सामर्थ्य होते हुए भी वह वस्तुतः अन्य का अपोह कर देता है । केवल सामान्य हमारे मन की कल्पना है ! जो भी है, वह विशेष है, जो विशेष है, वह भी क्षणिक है, तो वह किसको वाच्य बनाएगा । वाच्यत्व तो केवल अन्य का अपोह कर देता है । बौद्ध अपनी चर्चा में आगे कहते हैं कि किसको सामान्य और विशेष का वाचक बनाएँ ? गाय शब्द बोलने मात्र से हमारे मस्तिष्क में उसका एक आकार बनता है, वह भी अन्य को अपोह कर देता है। सामान्य और विशेष परस्पर विरोधी हैं, इसलिए शब्द न सामान्य का वाचक हो सकता है, न ही विशेष का। बौद्धों का मत तो यही है कि अन्य विकल्पों का निषेध करके किसी एक विकल्प पर स्थिर हो जाना - यही अपोहवाद है, अर्थात् शब्द का अर्थ के साथ कोई संबंध नहीं है तथा शब्द और अर्थ में न तो कार्य-कारण सम्बन्ध और न वाच्य - वाचक का संबंध । इस प्रकार, बौद्धों ने अपने मत की पुष्टि की है, तो रत्नप्रभ भी विस्तार से बौद्धमत की समीक्षा करते हुए अपना मत प्रस्तुत किया है कि प्रत्येक वस्तु सामान्य - विशेषात्मक होती है, क्योंकि शब्द सामान्य को विशेष बना लेता है तथा विशेष को सामान्य बना लेता है । बौद्धों की समीक्षा में रत्नप्रभ ने यह भी चर्चा की है कि विकल्प को भी उत्पन्न करने की शक्ति तो शब्द में ही रही हुई है, अतः, रत्नप्रभ द्वारा बौद्धों के प्रमुख सिद्धान्त अपोहवाद की समीक्षा की चर्चा मिलती है। इसके पश्चात्, शब्द में ही अर्थ-बोध कराने की शक्ति रही हुई है- ऐसा मानने वाले मीमांसक - मत की समीक्षा में रत्नप्रभ ने लिखा है कि शब्द में अर्थ-बोध कराने की शक्ति रही हो, वह व्यक्ति के गुण-दोष पर निर्भर है, ऐसी संक्षिप्त चर्चा की गई है । तत्पश्चात्, शब्द विधि और निषेध द्वारा अपने वाच्यार्थ का प्रतिपादन करता हुआ किस प्रकार सप्तभंगी के रूप में प्रवृत्त होता है, इसकी विस्तृत चर्चा की गई है। सप्तभंगी से यह ज्ञात होता है कि पदार्थ में कोई भी धर्म किस प्रकार से रहा हुआ है । सप्तभंगी इस प्रकार, से बनती है- 1. स्यात् अस्ति घटः-घट कथंचित् है, अर्थात् स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव
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