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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
है । शब्द की नित्यता न तो प्रत्यभिज्ञा से, न अनुमान से और न ही अर्थापत्ति- प्रमाण से सिद्ध होती है, अतः, आपका मत खंडित हो जाता है । पुनः, रत्नप्रभ कहते हैं कि आप मीमांसक शब्द को नित्य प्रत्यक्ष के आधार
मानते हो, किन्तु प्रत्यक्ष से तो नित्य और अनित्य का भी बोध होता है । रत्नप्रभ शब्द की अनित्यता को पुद्गल की पर्याय समझकर सिद्ध करते हैं, तो मीमांसक शब्द को ज्ञानरूप मानकर शब्द की नित्यता सिद्ध करते हैं। इस प्रकार,, मीमांसकों ने वर्णादि की नित्यता के पक्ष में अपना मत विस्तार से प्रस्तुत किया है। इस पर जैन - दार्शनिक रत्नप्रभ ने भी विस्तार से अपनी समीक्षा प्रस्तुत की है। तत्पश्चात्, रत्नप्रभ नैयायिक की समीक्षा करते हैं, क्योंकि नैयायिक शब्द को अनित्य भले ही मानते हैं, किन्तु वे शब्द को पौद्गलिक न मानकर अपौद्गलिक मानते हैं। विशेष रूप से, नैयायिक शब्द को आकाश का गुण मानते हैं। इनकी समीक्षा में रत्नप्रभ कहते हैं कि आप नैयायिक हमारे द्वारा प्रस्तुत पाँच अनुमान या पाँच हेतुओं में से शब्द को अपौद्गलिक सिद्ध करने के लिए कौनसा अनुमान प्रस्तुत करेंगे ? रत्नप्रभ नैयायिक की समीक्षा के अन्त में कहते हैं कि शब्द को अपौद्गलिक सिद्ध करने के लिए जो पाँच हेतु प्रतिपादित किए हैं, वे हेतु न होकर हेत्वाभास हैं, अतः, अपने पक्ष के समर्थन में, अन्त में रत्नप्रभ नैयायिकों से कहते हैं कि शब्द (पक्ष), पौद्गलिक (साध्य) इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष का विषय होने से (हेतु), रूप- रसादि के जैसे ही (उदाहरण), जो-जो इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष का विषय होते हैं, वे वे पौद्गलिक ही होते हैं, जैसे कि रूप-रस-गंध-स्पर्श आदि गुण, ये गुण जैसे पौद्गलिक होते हैं, वैसे ही शब्द भी श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष का विषय होने से पौद्गलिक ही हैं, इसलिए शब्द जो हैं, वे भाषा - वर्गणा के पुद्गलों से बनते हैं । इस प्रकार,, रत्नाकरावतारिका के चौथे परिच्छेद के नौवें सूत्र में रत्नप्रभ द्वारा मीमांसक और नैयायिक की विस्तृत चर्चा मिलती है। तत्पश्चात्, पद और वाक्य की संक्षिप्त व्याख्या के उपरान्त यह चर्चा प्रस्तुत की गई है कि स्वाभाविक - शक्ति और संकेत द्वारा शब्द पदार्थ का बोधक होता है। नैयायिक जाति-संबंध से वाच्य - वाचकभाव की नियामकता स्वीकार करते हैं । अतीन्द्रिय-शक्ति को भी स्वीकार न करने पर रत्नप्रभ ने नैयायिकों के विरोध में लिखा है कि अतीन्द्रिय-शक्ति को मानें बिना वाच्य वाचकभाव के नियमन का हेतु नहीं बन सकता, इसीलिए शब्द में रहे हुए अर्थबोध में कारणभूत ऐसी अतीन्द्रिय-शक्ति को स्वीकारना ही उत्तम होता है। ऐसा कहकर रत्नप्रभ ने अति विस्तार से नैयायिकों की समीक्षा की है । पुनः,
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