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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
आप्तवचनों का उच्चरित शब्द से ही अर्थबोध हो जाना वास्तविक रूप में 'आगम' है। इसी को आगम-प्रमाण कहने की चर्चा की गई है तथा जो वस्तु जैसी है, वैसी ही जानना तथा जैसा जाना है, वैसा ही कथन करना आप्तपुरुष का स्वरूप है, यह स्पष्ट करते हुए आप्तपुरुष की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की गई है। इसके पश्चात्, श्रुति अपौरुषेय है- ऐसा मानने वाले मीमांसक के साथ ग्रन्थकर्ता रत्नप्रभसूरि की चर्चा का वर्णन है। रत्नाकरावतारिका में मीमांसक-मत को प्रस्तुत करते हुए यह उल्लेख किया गया है कि मीमांसक सर्वज्ञ को नहीं मानते हैं। उनके अनुसार, कोई भी पुरुष सर्वज्ञ नहीं होता है। वेद अनादिकाल से हैं, ऋषि-मुनि भी वेद के दृष्टा हैं, किन्तु रचयिता नहीं हैं। वेद अपौरुषेय होने के कारण ज्ञानरूप हैं और इसलिए वेद प्रमाण हैं। मीमांसक के मत का विरोध करते हुए जैन-दार्शनिकों ने मीमांसकों के समक्ष यह प्रश्न उठाया है कि यदि वेद शब्दरूप हैं, ग्रन्थ हैं, कार्य हैं तथा नित्य हैं, तो फिर आपके ग्रन्थ में तो मंत्रों के कर्ता के नाम भी तो हैं, तो फिर वेद अपौरुषेय कैसे हआ ? आपके पास क्या प्रमाण है कि वेद अपौरुषेय हैं? क्योंकि वेदों को न तो प्रत्यक्ष-प्रमाण से जाना जा सकता है और न अनुमान से। कोई भी प्रमाण ऐसा नहीं है, जो सिद्ध कर सके कि वेद अपौरुषेय हैं, जबकि वेद में हिंसा का भी कथन है। इस प्रकार, रत्नप्रभ द्वारा वेद के नित्यत्व का एवं अपौरुषेयत्व का खण्डन करने की विस्तृत चर्चा की गई है। इसके उपरान्त, आप्तपुरुष के स्वरूप का निरूपण करने के पश्चात् आप्तपुरुष के वचन का निरूपण करते हुए यह चर्चा की गई है कि वर्णात्मक, पदात्मक और वाक्यात्मक जो शब्द-रचना होती है, उसे वचन कहा जाता है। वचन को वर्ण, पद, वाक्य आदि पाँच प्रकार के भिन्न-भिन्न रूपों में प्रस्तुत करते हुए आगे कहा गया है कि जैन-दार्शनिक शब्द को पौद्गलिक मानते हैं। शब्द भाषा-वर्गणा के पुदगलों से बनते हैं, अतः, शब्द पुदगल की पर्याय हैं, इसलिए शब्द पौद्गलिक होते हैं। शब्द को नित्य मानने वाले मीमांसक के साथ सर्वप्रथम चर्चा में मीमांसक अपना मत प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि शब्द पौद्गलिक नहीं हो सकते, क्योंकि शब्द तो नित्य होते हैं। वर्णों का नित्यत्व सिद्ध करने के लिए मीमांसक तीन मत (प्रमाण) प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि प्रत्यभिज्ञा-प्रमाण, अनुमान-प्रमाण और अर्थापत्ति-प्रमाण- इन तीनों से शब्द की अनित्यता सिद्ध नहीं हो सकती। जैन-दार्शनिक रत्नप्रभ मीमांसकों की समीक्षा में कहते हैं कि व्याप्ति नहीं होती है। प्रत्यभिज्ञा तो अनित्य वस्तु की भी होती है। व्याप्ति भी अनुमान के आधार से सिद्ध होती
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