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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 4. रत्नाकरावतारिका के तृतीय परिच्छेद में परोक्ष-प्रमाण के पाँच भेद बताकर सिर्फ प्रथम चार भेद- स्मृति (स्मरण), प्रत्यभिज्ञान, तर्क (ऊह) और अनुमान-प्रमाण तक की चर्चा की गई है, किन्तु परोक्ष-प्रमाण के पाँचवें भेद आगम-प्रमाण का कोई भी उल्लेख तृतीय परिच्छेद में नहीं किया गया है, अपितु आगम-प्रमाण का विस्तृत वर्णन चतुर्थ परिच्छेद में प्रथम-सूत्र से ही प्रारंभ किया गया है, जिसमें यह बताया गया है कि आगम-प्रमाण क्या है? सर्वप्रथम, ग्रंथकर्ता रत्नप्रभ की ओर से यह प्रस्तुत किया गया है कि आप्तपुरुष के वचनों से जो विषय-बोध का ज्ञान होता है, उसे आगम-प्रमाण कहते हैं, क्योंकि आप्त-पुरुष के वचन ही प्रामाणिक होते हैं। यहाँ पर यह जिज्ञासा भी उठाई गई है कि यदि श्रोता के हृदय में उत्पन्न हुए अर्थ के बोध को ही आगम कहा जाए, तो फिर आप्त-पुरुष के वचन को भी आगम-प्रमाण कहा जाता है- ऐसी सिद्धान्तकारों की धारणा है, वह सिद्ध कैसे होगी, ऐसा प्रश्न कोई भी उठा सकता है ? अत:, ग्रन्थकर्ता द्वारा पुनः ही समाधान करने की चर्चा की गई है। जैन-दार्शनिक आगम-प्रमाण को अनुमान-प्रमाण के अंतर्गत न मानकर स्वतंत्र-प्रमाण स्वीकार करते हैं, किन्तु वैशेषिक दार्शनिक कणाद आगम-प्रमाण को अनुमान-प्रमाण के अंतर्गत ही स्वीकार करते हैं, अर्थात् आगम (शब्द)- प्रमाण को स्वतंत्र-प्रमाण नहीं मानते हैं, अतः, रत्नाकरावतारिका के चतुर्थ परिच्छेद में आगम-प्रमाण को लेकर वैशेषिक-मत की विस्तृत चर्चा मिलती है, तो साथ ही, रत्नप्रभ द्वारा वैशेषिक-मत के विरोध में विस्तृत रूप में समीक्षा प्रस्तुत करते हुए ग्रन्थकर्ता रत्नप्रभसूरि सूत्र की व्याख्या के अंत में वैशेषिक से कहते हैं कि शब्द-बोध के लिए सर्वप्रथम 1. अर्थविवक्षा 2. पश्चात् शब्दोच्चारण 3. तत्पश्चात् शब्दश्रवण 4. तत्पश्चात् वक्ता की विवक्षा की विचारणा 5. तत्पश्चात् आप्तवचन है या अनाप्तवचन- इसका स्पष्टीकरण और अंत में 6. अर्थप्रतीती- इस प्रकार, की प्रतीति किसी को भी नहीं होती, अपितु बिना प्रतीति के ही शब्द-श्रवण होते ही तुरंत अर्थबोध हो जाता है। छठवें एवं सातवें सूत्र में आप्तपुरुष को दो प्रकार का बताते हुए कहा गया है कि वे लौकिक और लोकोत्तर- दो प्रकार के होते हैं। इसे उदाहरण के माध्यम से समझाया गया है कि इस प्रदेश (स्थान) में रत्नों का खजाना है, ऐसे लौकिक वाक्य या अनुभूत कथन माता-पिता आदि के द्वारा कहे जाते हैं और इस संसार में मेरुपर्वत आदि हैं- ऐसे लोकोत्तर वाक्य तीर्थकर, गणधर आदि के द्वारा प्रयुक्त होते हैं। तात्पर्य यह है कि दोनों प्रकार के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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