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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
यह भी चर्चा की गई है कि बौद्ध विशेष को ही मानते हैं, सामान्य को नहीं । इसके पश्चात्, रत्नाकरावतारिका में अनुमान - प्रमाण के दो प्रकार बताए गए हैं- 1. स्वार्थानुमान और 2 परार्थानुमान । अनुमान - प्रमाण की चर्चा में चार्वाक अनुमान को प्रमाण नहीं मानते हैं। उनकी मान्यता है कि अनुमान स्वतंत्र - प्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि एकमात्र प्रत्यक्ष ही प्रमाण है । इसकी समीक्षा करते हुए रत्नप्रभ ने अनुमान -प्रमाण की सिद्धि में हेतु और अनुमान- इन दोनों को प्रमुख बताया है। इसके आगे हेतु के लक्षण के संबंध में रत्नाकरावतारिका में रत्नप्रभ लिखते हैं- साध्य के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित हो, अर्थात् जो साध्य के बिना कदापि संभव न हो, वह हेतु कहलाता है, जैसे- अग्नि ( साध्य) के बिना धूम कदापि संभव नहीं है, अतएव धूम हेतु है। हेतु कहीं अतिव्याप्त होता है, कहीं अल्पव्याप्त । जिसका अन्यथानुपपत्ति निश्चित हो, अर्थात् और कहीं होता ही नहीं, वह निश्चितान्यथानुपपत्ति है । यही एकमात्र हेतु का लक्षण है। इसके आगे के सूत्र में बौद्ध - दार्शनिकों के पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व और विपक्षासत्व- इन तीन लक्षणों के मानने की चर्चा है तथा नैयायिकों के इन तीन लक्षणों के साथ असत् - प्रतिपक्षता और अबाधितविषयता- इन दो लक्षणों सहित पाँच लक्षणों के मानने की चर्चा की गई है, किन्तु रत्नप्रभ ने इन दोनों दार्शनिक-मतों के खण्डन में यह समीक्षा प्रस्तुत की है कि बौद्धों और नैयायिकों के तीन और पाँच लक्षणों वाला हेतु नहीं हो सकता, वह तो हेत्वाभास होता है। हेत्वाभास में ही ये लक्षण संभव हो सकते हैं। इसके आगे, रत्नप्रभ साध्य के स्वरूप की चर्चा में लिखते हैं कि अप्रतीत, अनिराकृत और अभीप्सितये तीनों जहां हों, वहीं साध्य होता है । रत्नप्रभ ने यह भी लिखा है कि जब व्याप्ति का प्रयोग करना हो, तो जहाँ-जहाँ धूम होता है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती है, इस प्रकार, अग्निधर्म को ही साध्य बनना चाहिए, साथ ही, धर्मी की प्रसिद्धि तीन प्रकार से होती है, उसकी चर्चा उदाहरण है । रत्नाकरावतारिका में हम देखते हैं कि पूर्वपक्ष के बौद्ध- दार्शनिक धर्मी की सिद्धि विकल्प से मानते हैं, वही रत्नप्रभ ने उत्तरपक्ष के रूप में बौद्ध-मत की समीक्षा भी प्रस्तुत की है। इसके पश्चात्, रत्नप्रभ ने परार्थानुमान की चर्चा में लिखा है कि यद्यपि प्रत्येक प्रमाण - ज्ञानस्वरूप होता है, परन्तु परार्थानुमान शब्दस्वरूप होता है, क्योंकि शब्द जड़ है और जड़रूप होने से प्रमाण नहीं हो सकता । परार्थानुमान स्वार्थानुमान का कारण है। कारण को उपचार से कार्य मानकर परार्थानुमान को भी अनुमान मान लिया गया है। इसके पश्चात्, पक्ष - प्रयोग
सहित की गई रूप में जहाँ
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