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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा बताते हैं। जिसने धर्म-अधर्म के सम्यक् - स्वरूप को समझ लिया है, वही धर्मज्ञ है। रत्नप्रभसूरि ने रत्नाकरावतारिका में इन सभी दार्शनिकों के मतभेदों को प्रस्तुत कर उनकी महान् समीक्षा की है। न्याय-वैशेषिक सर्वज्ञ को मानते तो हैं, किन्तु वे केवल ईश्वर को सर्वज्ञ मानते हैं, अर्थात् ईश्वर ही सर्वज्ञ है और वही जगत् का कर्त्ता भी है। संसार की जो रचना हम देखते हैं, वह सब ईश्वर की ही सुव्यवस्थित रचना है, अतः, इसका निमित्त - कारण ईश्वर ही हैं । रत्नप्रभ न्याय-वैशेषिक (नैयायिक) का खण्डन करते हुए कहते हैं कि ईश्वर कोई निमित्त - कारण नहीं होता। समस्त पदार्थ अपने-अपने कारणों से ही उत्पन्न होते हैं। आचार्य रत्नप्रभ ने इसी प्रसंग में केवलज्ञानी के कवलाहार की चर्चा को उठाकर केवली का कवलाहार नहीं मानने वाले दिगम्बर-मत का खण्डन किया है। इस संबंध में उन्होंने सर्वप्रथम दिगम्बरों का पूर्वपक्ष प्रस्तुत कर फिर उसकी समीक्षा की है। दिगम्बर की मान्यता है कि सर्वज्ञ निर्विकल्प होता है, इच्छारहित होता है, अतः, उसे आहार की इच्छा नहीं होती है, इसलिए वह आहार भी नहीं करता है । इस पर रत्नप्रभ का कहना है कि आहार और केवलज्ञान में कोई विरोध नहीं है, अतः, आहार और ज्ञान साथ-साथ रह सकते हैं, केवली में उनकी सहानवस्था है। 55 3. रत्नाकरावतारिका के तृतीय परिच्छेद में सर्वप्रथम परोक्ष - प्रमाण के पाँच प्रकार- 1. स्मरण 2. प्रत्यभिज्ञा 3 तर्क 4 अनुमान और 5. आगम बताते हुए इनके लक्षण वर्णित किए गए हैं। नैयायिक सादृश्य को जानने वाले उपमान -प्रमाण को अलग मानते हैं। इनके द्वारा प्रत्यभिज्ञान -प्रमाण को स्वतंत्र - प्रमाण नहीं मानने की चर्चा की गई है। बौद्ध- दार्शनिक क्षणिकवादी होने के कारण प्रत्यभिज्ञान को प्रमाण नहीं मानकर, भ्रांतिरूप मानते हैं। इनका सिद्धांत है कि जब वस्तु का लक्षण प्रतिक्षण बदलने का है, तो बदलने वाले को प्रत्यभिज्ञान कैसे मान सकते हैं ? प्रत्यक्ष को ही प्रत्यभिज्ञान मानना चाहिए। इनकी समीक्षा करते हुए रत्नप्रभ लिखते हैं कि प्रत्यक्ष में तो सिर्फ वर्तमान की वस्तु का ही बोध होता है, किन्तु प्रत्यभिज्ञान में भूत एवं वर्त्तमान- दोनों का ही बोध होता है। तर्क-प्रमाण के संबंध में बौद्ध - दार्शनिक के तर्क (ऊह) को प्रमाण नहीं मानने की चर्चा की है, तो रत्नप्रभ ने इनकी समीक्षा में लिखा है कि यदि आप तर्क को प्रमाण नहीं मानेंगे, तो आपका अनुमान - प्रमाण भी सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि व्याप्ति त्रैकालिक - संबंध का ज्ञान कराती है, जबकि प्रत्यक्ष से तो केवल वर्त्तमान का ही ज्ञान होता है, व्याप्ति का ज्ञान तो तर्क से होता है। इसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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