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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा हैं. वहीं रत्नप्रभसरि जैन-दर्शन के अनुसार चक्षु को अप्राप्यकारी मानकर शेष चारों इन्द्रियों को प्राप्यकारी मानते हैं और इस संबंध में बौद्ध-मत की विस्तार से समीक्षा भी करते हैं। इसके पश्चात्, रत्नप्रभसूरि ने प्रत्यक्ष के भेदों की चर्चा की है। वे लिखते हैं कि किसी भी पदार्थ का सांव्यवहारिक-प्रत्यक्षरूप-ज्ञान क्रमशः अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा होता है, जबकि पारमार्थिक-प्रत्यक्षरूप-ज्ञान दो प्रकार का होता है - 1. विकल-पारमार्थिक-प्रत्यक्ष और 2. सकल-पारमार्थिक-प्रत्यक्ष। विकल-पारमार्थिक-प्रत्यक्ष भी दो प्रकार का होता है- 1. अवधिज्ञान 2. मनःपर्यवज्ञान । अवधिज्ञान का विषय रूपी-द्रव्य, जैसे- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, अन्धकार, प्रकाश, छाया, आतप आदि हैं। इस सामान्य चर्चा के उपरान्त रत्नाकरावतारिका में रत्नप्रभसूरि लिखते हैं कि नैयायिक एवं वैशेषिक अंधकार और छाया को द्रव्यरूप नहीं मानते, अपितु इन दोनों को प्रकाश का अभावरूप मानते हैं, जबकि यहाँ जैन-दर्शन के अनुसार, रत्नप्रभसूरि अंधकार और छाया को भी प्रकाश और ताप (आतप) के समान ही रूपी-द्रव्य मानते हैं। इस प्रसंग में रत्नप्रभसूरि नैयायिकों से प्रश्न करते हैं कि आप हमारे द्वारा प्रस्तुत निम्न आठ तर्कों के आधार पर अन्धकार को अभावरूप सिद्ध नहीं कर सकते हैं। तत्पश्चात्, वे रत्नाकरावतारिका में अन्धकार की भावरूपता के लिए आठ तर्क प्रस्तुत करते हैं और कहते हैं कि जिस प्रकार आप प्रकाश को सत्तारूप मानते हो, वैसे ही आपको अंधकार और छाया को भी सत्तारूप और द्रव्यरूप मान लेना चाहिए। इस संबंध में रत्नप्रभ ने नैयायिकों के पूर्वपक्ष और जैनों के उत्तरपक्ष को लेकर विस्तार से चर्चा की है। इस चर्चा के उपरान्त रत्नप्रभसूरि ने मनःपर्यवज्ञान के स्वरूप की चर्चा करते हुए यह बताया है कि मनःपर्यवज्ञानी दूसरों के मनोभावों को जानता है। इस चर्चा के उपरान्त रत्नप्रभसूरि ने रत्नाकरावतारिका में केवलज्ञान का प्रतिपादन किया है। वे लिखते हैं कि सम्यकदर्शन आदि आंतरिक-भाव-विशुद्धि से एवं तपश्चर्या आदि बाह्य-हेतुओं से समस्त घातीकर्मों का क्षय होने पर उत्पन्न होने वाला केवलज्ञान है। वह केवलज्ञान समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों का ज्ञान होता है। केवलज्ञान के स्वरूप एवं संभावना को लेकर मीमांसकों, चार्वाकों और बौद्धों के भिन्न-भिन्न मत हैं। मीमांसकों की मान्यता है कि केवलज्ञान संभव नहीं है। वर्द्धमान में सर्वज्ञ का अभाव है, क्योंकि उनमें सर्वज्ञत्व अनुपलब्ध है। चार्वाक भी यही कहते हैं कि केवलज्ञान नाम की कोई वस्तु नहीं है। बौद्ध सर्वज्ञ को मानते तो हैं; किन्तु सर्वज्ञ को धर्मज्ञान
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