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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा दीपक स्वयं प्रकाशित नहीं होता है, वह अन्य पदार्थों को भी प्रकाशित नहीं कर पाता है। इसी प्रकार, इस प्रथम परिच्छेद में प्रमाण को एकान्तरूप से ज्ञान का साधन मानने वाले और एकान्तरूप से ज्ञानरूप मानने वाले की समीक्षा करते हुए यह बताया गया है कि प्रमाण ज्ञान का साधन न होकर ज्ञानरूप ही होता है; किन्तु यह ज्ञान, स्व और पर- दोनों का प्रकाशक होकर निश्चयात्मक होता है। इस प्रकार, प्रथम परिच्छेद में रत्नप्रभसूरि ने आदिवाक्य की आवश्यकता को स्थापित करते हुए प्रथमतः शब्द और अर्थ के संबंध को लेकर एक ओर मीमांसकों के तादात्म्यवाद की समीक्षा की है, तो दूसरी ओर, शब्द और अर्थ में संबंध नहीं है- बौद्धों के ऐसे सिद्धान्त का भी निरसन किया है। इसी क्रम में आगे, प्रमाण-लक्षण की चर्चा करते हुए उन्होंने ज्ञान के साधनों की अपेक्षा ज्ञान को ही प्रमाण स्थापित किया है तथा सन्निकर्ष, इन्द्रियवृत्ति आदि के प्रमाणत्व का भी खण्डन किया है। प्रमाण को निश्चयात्मक सिद्ध करने के प्रसंग में उन्होंने उसे संशय, समारोप और विपर्यय से रहित बताकर बौद्धों के निर्विकल्प-प्रत्यक्ष की प्रमाणता का खंडन किया है, वहीं दूसरी ओर, बाह्यार्थ का निषेध करने वाले शून्यवाद और ब्रह्मवाद की भी समीक्षा की है और इसी क्रम में यह सिद्ध किया है कि प्रमाण स्व-पर-व्यवसायात्मक होता है। आगे, प्रामाण्यता और अप्रामाण्यता के स्वरूप की चर्चा करते हुए उनकी उत्पत्ति और ज्ञप्ति के संबंध में विचार किया गया है तथा इस संबंध में जैन-दर्शन से विरोधी मतों की भी समीक्षा की गई है। 2. रत्नाकरावतारिका के दूसरे परिच्छेद में सर्वप्रथम प्रमाण दो प्रकार के बताए गए हैं - 1. प्रत्यक्ष और 2. परोक्ष। फिर यह कहा गया है कि प्रत्यक्ष-प्रमाण दो प्रकार का होता है - 1. सांव्यवहारिक-प्रत्यक्ष और 2. पारमार्थिक-प्रत्यक्ष। सांव्यवहारिक-प्रत्यक्ष पुनः दो प्रकार का होता है - 1. इन्द्रिय-बन्धन और 2. अनिन्द्रिय-बन्धन । यहाँ यह प्रश्न उठाया गया है कि सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय को संस्पर्श करके ज्ञान उत्पन्न करती है, या अपने विषय को संस्पर्श किए बिना ही ज्ञान उत्पन्न करती हैं ? इस प्रश्न को लेकर विभिन्न दार्शनिकों में मतभेद हैं। बौद्ध-दार्शनिक चक्षु और श्रोत्र- इन दो इन्द्रियों के अतिरिक्त शेष तीन इन्द्रियों, अर्थात् रसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय को प्राप्यकारी अर्थात् अपने विषय का स्पर्श कर जानने वाली बताते हुए शेष दो, अर्थात् चक्षु और श्रोत्र को अप्राप्यकारी मानते हैं, जबकि नैयायिक चक्षु सहित पाँचों इन्द्रियों को प्राप्यकारी मानते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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