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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा यह कि यदि शून्यवादी-दार्शनिक पदार्थ को एकान्तरूप से अनित्य मानते हैं, तो अनित्य-पदार्थ में अर्थक्रिया संभव नहीं होती है। इसी प्रकार, पदार्थ को कूटस्थ-नित्य माना जाए, तो भी उसमें अर्थक्रिया संभव नहीं होगी, इसलिए जैन-दार्शनिकों का कहना है कि अर्थक्रिया न तो एकांत-नित्य-पदार्थ में संभव है, न ही एकान्त-अनित्य-पदार्थ में। वस्तुतः, तो वह नित्यानित्य-पदार्थ में ही संभव हो सकती है, अतः, प्रमाण का विषय पदार्थ शून्यरूप नहीं हो सकता। इसी प्रकार, प्रमाण भी शून्यरूप नहीं माना जा सकता। यदि प्रमाण शून्यरूप है, तो शून्यता की सिद्धि भी शून्यरूप ही होगी, अतः, प्रमाण को शून्यरूप नहीं माना जा सकता। इसके विपरीत, यदि शून्यवादी प्रमाण को अशून्य मानते हैं, तो फिर उनका शून्यवाद भी खण्डित हो जाता है। इस प्रकार, यहाँ रत्नप्रभसूरि ने विस्तार से शून्यवाद का खंडन करते हुए यह स्पष्ट किया है कि प्रमाण न तो मात्र स्व का निर्णायक है, न मात्र पर का, न वह शून्यता की सिद्धि ही करता है, वस्तुतः तो वह स्वपर-व्यवसायी ही है। इस प्रकार, प्रथम-परिच्छेद में प्रमाण को स्वपर-व्यवसायात्मक सिद्ध करने के लिए शून्यवाद की समीक्षा की गई है। इसी क्रम में, ब्रह्माद्वैतवाद का भी खंडन किया गया है, क्योंकि ब्रह्माद्वैतवाद में जगत् को मिथ्या कहा गया है और जो मिथ्या है, वह प्रमाण का विषय हो ही नहीं सकता। इस प्रकार, रत्नप्रभसूरि ने प्रथम परिच्छेद में शून्याद्वैतवाद और ब्रह्माद्वैतवाद- दोनों की ही समीक्षा की है, साथ ही यह बताया है कि प्रमाण स्वसंवेदनरूप और पर-संवेदनरूप- दोनों ही है, क्योंकि यदि प्रमाण को स्वसंवेदनरूप नहीं माना जाएगा तो वह अन्य का या पर का प्रकाशक भी नहीं हो सकता, क्योंकि पर का प्रकाशक वही हो सकता है, जो स्व का प्रकाशक हो। दीपक यदि स्वयं प्रकाशित नहीं हो, तो वह अन्य को भी प्रकाशित नहीं कर सकता। इस प्रकार, इस प्रथम परिच्छेद में रत्नप्रभसूरि ने प्रमाण को स्व-पर-व्यवसायात्मक सिद्ध करने के लिए, जहाँ एक ओर बौद्धों के विज्ञानवाद और शून्यवाद का खण्डन किया है, वहीं दूसरी ओर उन्होंने वेदान्त के ब्रह्मवाद का भी खंडन किया है, क्योंकि इन सभी ने बाह्यार्थ की सत्ता का निषेध किया है, या उसे मिथ्या बताया है। इसी प्रकार इस प्रथम परिच्छेद में नैयायिकों और मीमांसकों के मत की भी समीक्षा की गई है, क्योंकि वे प्रमाण को मात्र करणरूप मानते हैं और उसे पर-प्रकाशक ही मानते हैं; किन्तु रत्नप्रभसरि का कहना है कि जो स्व-प्रकाशक न हो, वह पर-प्रकाशक हो ही नहीं सकता, जैसे- जो
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