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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
आधार पर ही सिद्ध होगा, अतः, प्रस्तुत कृति में सर्वप्रथम शब्दार्थ-संबंध को लेकर विभिन्न दार्शनिकों द्वारा जो विभिन्न प्रकार की शंकाएं प्रस्तुत की गई हैं, उनके समाधान का प्रयत्न किया जाता है। इस प्रकार, रत्नाकरावतारिका के प्रथम परिच्छेद में शब्दार्थ-संबंध के आधार पर आदिवाक्य का प्रयोजन सिद्ध किया गया है। शब्द और अर्थ के संबंध को लेकर विभिन्न भारतीय-दार्शनिकों के विचार अलग-अलग हैं, जैसे - मीमांसक शब्द और अर्थ में तादात्म्य-संबंध मानते हैं, तो नैयायिक उनमें तदुत्पत्ति-संबंध मानते हैं, वहीं बौद्ध-दार्शनिक शब्द और अर्थ (वस्तु) में कोई संबंध ही नहीं मानते हैं, जबकि जैन-दार्शनिक रत्नप्रभसूरि शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचक-संबंध मानते हैं। इस प्रकार, इस ग्रंथ के प्रारंभ में शब्द और अर्थ के संबंध को लेकर चार प्रकार की मान्यताओं का उल्लेख किया गया है। मात्र इतना ही नहीं, यहाँ वाच्य-वाचक-संबंध को छोड़कर शेष तीन मतों की समीक्षा भी की गई है। इसके अतिरिक्त, प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रारंभ में ज्ञान के साधनों को प्रमाण मानने वाले नैयायिकों के, निर्विकल्प को प्रमाण मानने वाले बौद्धों के मन्तव्यों की समीक्षा भी है। इसके साथ ही, प्रमाण को पर-प्रकाशक मानने वाले नैयायिकों एवं मीमांसकों का तथा प्रमाण को स्वप्रकाशक मानने वाले बौद्धों और अद्वैतवादियों का रत्नप्रभसूरि ने निरसन करते हुए यह मत प्रस्तुत किया है कि प्रमाण स्व और पर-प्रकाशक होता है। इस संदर्भ में चर्चा करते हुए वे लिखते हैं कि न्याय-दर्शन के सन्निकर्ष आदि भी प्रमाण नहीं हो सकते। आचार्य रत्नप्रभसूरि ने बौद्धों के निर्विकल्प-प्रत्यक्ष का खण्डन करते हुए यह चर्चा की है कि प्रमाण निश्चयात्मक होता है, क्योंकि वह समारोप का विरोधी होता है, अतः, निर्विकल्प-प्रत्यक्ष अनिश्चयात्मक होने से प्रमाणरूप नहीं हो सकता है। इसी प्रसंग में रत्नप्रभसूरि ने बौद्धों के शून्यवादी-सिद्धान्त का भी निरसन किया। चूंकि बौद्ध-दार्शनिक जगत् को शून्यरूप मानते हैं, अतः, रत्नप्रभ ने बौद्ध-दार्शनिकों के समक्ष चार प्रश्न उठाए हैं- आप जिसे पर कहते हो, वह 1. अणुरूप है ? या 2. स्थूलरूप है ? या 3. उभयरूप है या 4. अनुभयरूप है ? यदि वह अणुरूप है, तो उसका प्रत्यक्ष संभव नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष से परमाणु की सिद्धि नहीं होती। अनुमान से भी परमाणु की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि अनुमान व्याप्ति-संबंध पर आधारित होता है। यदि व्याप्ति-संबंध का प्रत्यक्ष से निश्चय न हो, तो अनुमान भी संभव नहीं है। यदि वह स्थूलरूप है, तो स्थूलरूप होने से उसका प्रत्यक्ष होता ही है, अतः, उसे शून्यरूप नहीं कहा जा सकता। दूसरे
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